श्रीशिवपञ्चाक्षरस्तोत्रम्
नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्माङ्गरागाय महेश्वराय।
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै नकाराय नम: शिवाय।।1।। जो शिव नागराज वासुकि का हार पहिने हुए हैं, तीन नेत्रों वाले हैं, तथा भस्म की राख को सारे शरीर में लगाये हुए हैं, इस प्रकार महान् ऐश्वर्य सम्पन्न वे शिव नित्य–अविनाशी तथा शुभ हैं। दिशायें जिनके लिए वस्त्रों का कार्य करती हैं, अर्थात् वस्त्र आदि उपाधि से भी जो रहित हैं; ऐसे निरवच्छिन्न उस नकार स्वरूप शिव को मैं नमस्कार करता हूँ।
मन्दाकिनीसलिलचन्दनचर्चिताय, नन्दीश्वरप्रमथनाथमहेश्वराय।
मन्दारपुष्पबहुपुष्पसुपूजिताय, तस्मै मकाराय नम: शिवाय।।2।।
जो शिव आकाशगामिनी मन्दाकिनी के पवित्र जल से संयुक्त तथा चन्दन से सुशोभित हैं, और नन्दीश्वर तथा प्रमथनाथ आदि गण विशेषों एवं षट् सम्पत्तियों से ऐश्वर्यशाली हैं, जो मन्दार–पारिजात आदि अनेक पवित्र पुष्पों द्वारा पूजित हैं; ऐसे उस मकार स्वरूप शिव को मैं नमस्कार करता हूँ।
शिवाय गौरीवदनाब्जवृन्द सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय।
श्रीनीलकण्ठाय वृषध्वजाय, तस्मै शिकाराय नम: शिवाय।।3।।
जो शिव स्वयं कल्याण स्वरूप हैं, और जो पार्वती के मुख कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य हैं, जो दक्ष–प्रजापति के यज्ञ को नष्ट करने वाले हैं, नील वर्ण का जिनका कण्ठ है, और जो वृषभ अर्थात् धर्म की पताका वाले हैं; ऐसे उस शिकार स्वरूप शिव को मैं नमस्कार करता हूँ।
वसिष्ठकुम्भोद्भवगौतमार्य मुनीन्द्रदेवार्चितशेखराय।
चन्द्रार्कवैश्वानरलोचनाय, तस्मै वकाराय नम: शिवाय।।4।।
वसिष्ठ, अगस्त्य, गौतम आदि श्रेष्ठ मुनीन्द्र वृन्दों से तथा देवताओं से जिनका मस्तक हमेशा पूजित है, और जो चन्द्र–सूर्य व अग्नि रूप तीन नेत्रों वाले हैं; ऐसे उस वकार स्वरूप शिव को मैं नमस्कार करता हूँ।।
यक्षस्वरूपाय जटाधराय, पिनाकहस्ताय सनातनाय।
दिव्याय देवाय दिगम्बराय, तस्मै यकाराय नम: शिवाय।।5।।
जो शिव यक्ष के रूप को धारण करते हैं और लंबी–लंबी खूबसूरत जिनकी जटायें हैं, जिनके हाथ में ‘पिनाक’ धनुष है, जो सत् स्वरूप हैं अर्थात् सनातन हैं, दिव्यगुणसम्पन्न उज्जवलस्वरूप होते हुए भी जो दिगम्बर हैं; ऐसे उस यकार स्वरूप शिव को मैं नमस्कार करता हूँ।
पञ्चाक्षरमिदं पुण्यं य: पठेच्छिवसन्निधौ।
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते।।6।।
जो भक्त भगवान् शंकर के सन्निकट इस पवित्र पञ्चाक्षर स्तोत्र का पाठ करता है, वह शिवलोक को प्राप्त करके भगवान् शंकर के साथ आनन्द प्राप्त करता है
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै नकाराय नम: शिवाय।।1।। जो शिव नागराज वासुकि का हार पहिने हुए हैं, तीन नेत्रों वाले हैं, तथा भस्म की राख को सारे शरीर में लगाये हुए हैं, इस प्रकार महान् ऐश्वर्य सम्पन्न वे शिव नित्य–अविनाशी तथा शुभ हैं। दिशायें जिनके लिए वस्त्रों का कार्य करती हैं, अर्थात् वस्त्र आदि उपाधि से भी जो रहित हैं; ऐसे निरवच्छिन्न उस नकार स्वरूप शिव को मैं नमस्कार करता हूँ।
मन्दाकिनीसलिलचन्दनचर्चिताय, नन्दीश्वरप्रमथनाथमहेश्वराय।
मन्दारपुष्पबहुपुष्पसुपूजिताय, तस्मै मकाराय नम: शिवाय।।2।।
जो शिव आकाशगामिनी मन्दाकिनी के पवित्र जल से संयुक्त तथा चन्दन से सुशोभित हैं, और नन्दीश्वर तथा प्रमथनाथ आदि गण विशेषों एवं षट् सम्पत्तियों से ऐश्वर्यशाली हैं, जो मन्दार–पारिजात आदि अनेक पवित्र पुष्पों द्वारा पूजित हैं; ऐसे उस मकार स्वरूप शिव को मैं नमस्कार करता हूँ।
शिवाय गौरीवदनाब्जवृन्द सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय।
श्रीनीलकण्ठाय वृषध्वजाय, तस्मै शिकाराय नम: शिवाय।।3।।
जो शिव स्वयं कल्याण स्वरूप हैं, और जो पार्वती के मुख कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य हैं, जो दक्ष–प्रजापति के यज्ञ को नष्ट करने वाले हैं, नील वर्ण का जिनका कण्ठ है, और जो वृषभ अर्थात् धर्म की पताका वाले हैं; ऐसे उस शिकार स्वरूप शिव को मैं नमस्कार करता हूँ।
वसिष्ठकुम्भोद्भवगौतमार्य मुनीन्द्रदेवार्चितशेखराय।
चन्द्रार्कवैश्वानरलोचनाय, तस्मै वकाराय नम: शिवाय।।4।।
वसिष्ठ, अगस्त्य, गौतम आदि श्रेष्ठ मुनीन्द्र वृन्दों से तथा देवताओं से जिनका मस्तक हमेशा पूजित है, और जो चन्द्र–सूर्य व अग्नि रूप तीन नेत्रों वाले हैं; ऐसे उस वकार स्वरूप शिव को मैं नमस्कार करता हूँ।।
यक्षस्वरूपाय जटाधराय, पिनाकहस्ताय सनातनाय।
दिव्याय देवाय दिगम्बराय, तस्मै यकाराय नम: शिवाय।।5।।
जो शिव यक्ष के रूप को धारण करते हैं और लंबी–लंबी खूबसूरत जिनकी जटायें हैं, जिनके हाथ में ‘पिनाक’ धनुष है, जो सत् स्वरूप हैं अर्थात् सनातन हैं, दिव्यगुणसम्पन्न उज्जवलस्वरूप होते हुए भी जो दिगम्बर हैं; ऐसे उस यकार स्वरूप शिव को मैं नमस्कार करता हूँ।
पञ्चाक्षरमिदं पुण्यं य: पठेच्छिवसन्निधौ।
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते।।6।।
जो भक्त भगवान् शंकर के सन्निकट इस पवित्र पञ्चाक्षर स्तोत्र का पाठ करता है, वह शिवलोक को प्राप्त करके भगवान् शंकर के साथ आनन्द प्राप्त करता है
उपमन्युकृतं शिवस्तोत्राम्
जय शर पार्वतीपते मृड शम्भो शशिखण्डमण्डन।
मदनान्तक भत्तफवत्सल प्रियकैलास दयासुधम्बुध्े।।1।।
हे शर! संसार के कल्याण करने वाले शिव जी, हे पार्वती जगज्जननी के पति–पालकऋ ;अर्थात् भगवती पार्वती इस संसार की माता हैं, और आप उनके पति हैं तो पिफर संसार के पिता हैंद्ध हे मृड–सुख देने वाले, हे शम्भो! हे शशिखण्डमण्डन! अर्थात् चन्द्रमा की कला से सुशोभित सिर वाले, हे मदनान्तक! काम को भस्म करने वाले, हे भत्तफवत्सल! हे प्रियकैलास! अर्थात् कैलासवास को पसन्द करने वाले, हे दयासुधम्बुध्े! दया के सागर, आपकी जय हो अर्थात् आप सर्वोत्कृष्ट हैं, आपको नमस्कार है। ;यहाँ भत्तफ का भगवान् के प्रति अपकृष्ट होना अर्थात् सि( है, अत: व्य नावृत्ति से नमस्कार अभिव्यत्तफ होता है।
सदुपायकथास्वपण्डितो हृदये दु:खशरेण खण्डित:।
शशिखण्डमण्डनं शरणं यामि शरण्यमीरम्।।2।।
हे शम्भो! मेरा हृदय दु:ख रूपीबाण से पीडित है, और मैं इस दु:ख को दूर करने वाले किसी उत्तम उपाय को भी नहीं जानता हूँ अतएव चन्द्रकला व शिखण्ड मयूरपिच्छ का आभूषण बनाने वाले, शरणागत के रक्षक परमेश्वर आपकी शरण में हूँ। अर्थात् आप ही मुझे इस भयंकर संसार के दु:ख से दूर करें।
महत: परित: प्रसर्पतस्तमसो दर्शनभेदिनो भिदे।
दिननाथ इव स्वतेजसा हृदयव्योम्नि मनागुदेहि न:।।3।।
हे शम्भो हमारे हृदय आकाश में, आप सूर्य की तरह अपने तेज से चारों ओर घिरे हुए, ज्ञानदृष्टि को रोकने वाले, इस अज्ञानान्ध्कार को दूर करने के लिए प्रकट हो जाओ। ;सूर्य जिस प्रकार अपने तेज–प्रकाश से रात्रिा जन्य अन्ध्कार को दूर कर देता है, उसी प्रकार आप भी यदि हमारे हृदय में प्रकट रहेंगे अर्थात् हमारे यान में रहेंगे तो जरूर हमारा भी कुछ न कुछ अज्ञानान्ध्कार दूर हो जायेगाद्ध।
न वयं तव चर्मचक्षुषा पदवीमप्युपवीक्षितुं क्षमा:।
कृपयाभयदेन चक्षुषा सकलेनेश विलोकयाशु न:।।4।।
हे ईश! हम इन चर्मचक्षु अर्थात् स्थूल नेत्राों से ;तुम्हारे धम तक पहुँचने वालेद्ध रास्ते को भी नहीं देख सकते हैं, अत: कृपा करके आप प्राणियों को अभय प्रदान करने वाले अपनी दयादृष्टि से हमें अच्छी तरह शीघ्र देखें। तात्पर्य यह है कि जब हम अपनी स्थूल दृष्टि ;सीध्े सीध्े विचारोंद्ध से आपके दर्शन कराने वाले मार्ग तक को नहीं देख सकते, तब साक्षात् दर्शन कैसे कर सकते हैं, अत: हे भगवन्! आप हमें अपनी कृपाभरी पूरी निगाहों से इस प्रकार देखें कि जिससे हमारे में आपके दर्शन करने की क्षमता आ जाय।
त्वदनुस्मृतिरेव पावनी स्तुतियुत्तफा न हि वत्तफुमीश सा।
मध्ुरं हि पय: स्वभावतो ननु कीक् सितशर्करान्वितम्।।5।।
हे ईश! आपका स्मरण ही परम पवित्रा है, तब स्तुतिरूप में या प्रशंसात्मक व्याख्यान में उसको क्या कहा जा सकता है? क्योंकि दूध् स्वभाव से ही मीठा हैऋ यदि उसमें चीनी डाल दी जाय तो पिफर कहना ही क्या? तात्पर्य यह है कि आपके स्मरण कीर्तन व यान से ही जब इतना आनन्द मिलता है, तो पिफर प्रशंसात्मक पद्यों के द्वारा स्तुति के द्वारा या कविता के रूप में कहा गया, आपके गुणों का गान कितना आनन्द प्रदान नहीं करेगा, यह कहा नहीं जा सकता है। स्वभावत: मध्ुर दूध् में चीनी डाल देने से, जिस प्रकार उसका माध्ुर्य बढ़ जाता है इसी प्रकार अच्छे शब्दों में कीखतत भगवाम भी अध्कि आनन्द प्रदान करता है। अथवा आपके स्वरूप का प्रतिपादन तो वाणी का विषय नहीं है, यदि वह किसी भी वाणी का विषय होता तो पिफर उस से कितना आनन्द आता, यह भी इस पद्य का रहस्य है।
सविषोप्यमृतायते भवाछवमुण्डाभरणोपि पावन:।
भव एव भवान्तक: सतां समदृखिवषमेक्षणोपि सन्।।6।।
हे शम्भो! आप विषसहित होते हुए भी अमृत के समान हैं, शवों के मुण्डों से सुशोभित होते हुए भी पवित्रा हैं। स्वयं ;जगत् के उत्पादकद्ध भव होते हुए भी, सज्जनों के या सन्तों के ;सांसारिक बन्ध्नद्ध को दूर करने वाले हैं। विषमनेत्रा अर्थात् तीन नेत्रा ;सूर्य, अग्नि, चन्द्र नेत्राद्ध वाले होते हुए भी समदृष्टि अर्थात् पक्षपात रहित हैं।
अपि शूलध्रो निरामयो दृढवैराग्यरतोपि रागवान्।
अपि भैक्ष्यचरो महेररितं चित्रामिदं हि ते प्रभो।।7।।
हे प्रभो! आप शूलध्र–त्रिाशूल को धरण करने वाले, ;शूल–रोग विशेष से युत्तफद्ध होते हुए भी, निरामय–नीरोग हो अर्थात् आप संसार के जन्म जरा मरणादि रोगों से अथवा आयात्मिक, आध्दिैविक और आध्भिौतिकादि द्वन्दों से दूर हैं। दृढवैराग्य से युत्तफ होते हुए भी रागवाले हो, अर्थात् भत्तफों के अनु नात्मक राग से युत्तफ हो। इसीलिए जल्दी प्रस हो जाते हो अत: सरस हो, अन्यथा कठोर दिलवाले का तो जल्दी प्रस होना मुशिकल है। अथवा ‘राग’ यह भी आनन्द की ही अन्यतम मात्राा है जिससे आप भत्तफों को संतुष्ट करते हैं। भगवान् शर को आशुतोष कहने का कदाचिद् यही रहस्य हो। स्वयं भिक्षावृत्ति वाले होते हुए भी महान् ऐश्वर्य सम्प आप है, आपका यह ;विरोधभासात्मकद्ध जो चरित है, वह बड़ा ही आ र्यजनक है।
वितरत्यभिवाछितं दृशा परिदृ: किल कल्पपादप:।
हृदये स्मृत एव ध्ीमते नमतेभीपफलप्रदो भवान्।।8।।
कल्पवृक्ष तो आँखों से देखे जाने पर ही किसी मनोवाछित वस्तु को प्रदान करता है, परन्तु आप तो केवल हृदय में स्मरण से ही नमस्कार करने वाले सद्विचारसंप जन के लिए अभीष्ट पफल प्रदान करते हैं।
सहसैव भुजपाश्वान् विनिगृाति न यावदन्तक:।
अभयं कुरु तावदाशु मे गतजीवस्य पुन: किमौषध्ै:।।9।।
भुज के समान भयंकर पाशवाला यमराज, जब तक अकस्मात् ;मुझेद्ध ग्रहण नहीं कर लेता है, अर्थात् मेरे प्राणों का हरण नहीं कर लेता है, तब तक जल्दी ही मेरे लिए आप अभयदान दें, अर्थात् मोक्ष प्रदान करें। नहीं तो पिफर जीवन समाप्त होने के बाद तो, औषधि् से भी कुछ बनने का नहीं।
सविषैरिव भोगपगैखवषयैरेभिरलं परिक्षतम्।
अमृतैरिव संभ्रमेण मामभिषिाशु दयावलोकनै:।।10।।
विषधरी भारी साँपों के समान इन सांसारिक विषयों ने मुझे भयभीत कर रखा है, अत: इनसे मैं परेशान हूँ। कृपया अमृत के समान ;जीवनदायक अथवा मुत्तिफसाध्कद्ध अपने कृपाकटाक्षों के अवलोकन से मुझे बचाइए।
मुनयो बहवोद्य ध्न्यतां गमिता: स्वाभिमतार्थदखशन:।
करुणाकर येन तेन मामवसं ननु पश्य चक्षुषा।।11।।
हे करुणानिधन! अपने अपने अभी अर्थ ;प्रयोजनद्ध को देखने वाले बहुत से मुनियों को अपने अपने जिस कृपावलोकन ;दयादृद्धि के द्वारा ध्न्यता पूर्ण बनाया, ;पिफरद्ध आज अवस नाश को प्राप्त हुए मुझको भी, उसी कृपापूर्ण दृि से निि त देखिए।
प्रणमाम्यथ यामि चापरं शरणं कं कृपणाभयप्रदम्।
विरहीव विभो प्रियामयं परिपश्यामि भवन्मयं जगत्।।12।।
हे प्रभो! अब मैं आपको प्रणाम करता हूँ, और आपकी शरण लेता हूँ। दीनों को अभयदान देने वाले आपको छोड़कर और ;अन्यद्ध किसकी शरण में मैं जाऊँ? कोई विरही जिस प्रकार सारे संसार को प्रियामय देखता है, हे विभो! उसी प्रकार मैं भी ;आपके विरह मेंद्ध इस समस्त चराचर जगत् को आपमय अर्थात् शिवमय देखता हूँ। जैसे कोई रागी अपनी प्रिया में अत्यन्त आसत्तफ होता है, अन्य किसी पदार्थ में उसी रुचि नहीं होती है, कहने का तात्पर्य यह है कि संसार में उसके लिए प्रिया से उत्कृ वस्तु पिफर कोई नहीं है, दर्शन की भाषा में हम जिसे ‘प्रियाद्वैत’ भी कह सकते हैंऋ इसी प्रकार शिवभत्तफ भी जब शिव को ही परमप्रेमास्पद मानता है, एक क्षण भी उससे अपने को विमुत्तफ नहीं होना चाहता है, तो उसके लिए भी पिफर यह संसार तो नहीं के समान है, अर्थात् सर्वत्रा ‘शिवाद्वैत’ भावना हीं है।
बहवो भवतानुकम्पिता: किमितीशान न मानकम्पसे।
दध्ता किमु मन्दराचलं परमाणु: कमठेन दुध्र्र:।।13।।
हे शम्भो! आपने बहुतों के ऊपर अनुकम्पा की है, पिफर क्यों आप मेरे ऊपर अनुकम्पा नहीं करते हैं? जो कमठ–कच्छुवा अपनी पीठ पर इतने बडे़ मन्दराचल को धरण कर सकता है, तो पिफर वह एक परमाणु को धरण नहीं कर सकता क्या?
अर्थात् जिस प्रकार बहुत बडे़ मन्दराचल को धरण करने वाले कमठ के लिए परमाणु धरण करना कोई कठिन नहीं है, इसी प्रकार इतने बडे़ संसार का उ(ार करने वाले आपके लिए भी, परमाणु तुल्य मेरा उ(ार करना भी आसान है।
अशुच यदि मानुमन्यसे किमिदं मूखन कपालदाम ते।
उत शाठ्यमसाध्ुसनिं विषलक्ष्मासि न क द्विजिध्ृक्।।14।।
;भत्तफ अपने प्रभु को इस पद्य में उलाहना देकर कह रहा है किद्ध– हे विभो! यदि आप मनुष्य होने के नाते मुझे अपवित्रा समझते हैं, तो पिफर आपने अपने मस्तक में नरकपालों की यह अपवित्रा माला कैसे पहन ली, क्या यह अपवित्रा नहीं है? अथवा दुों के साथ रहने से मुझे शठ समझकर मेरा उ(ार नहीं कर रहे हैं, मेरी उपेक्षा कर रहे हैं, तो पिफर आप द्विजिध्ृक साँप को धरण करके अथवा द्विजिध्ृक चुगलखोर को साथ में रखकर ‘शठ’ अथवा अलक्षण या कुलक्षण वाले नहीं है क्या?
दृशं विदधमि क करोम्यनुतिशमि कथं भयाकुल:।
नु तिश्सि रक्ष रक्ष मामयि शम्भो शरणागतोस्मि ते।।15।।
हे शम्भो! मैं अब किध्र देखूँ ;दृि लगाऊँद्ध क्या करूँ, भयभीत मैं कैसे यहां रहूँ? हे प्रभो! आप कहाँ हैं? मेरी रक्षा करें। मैं ;अबद्ध आपकी हीं शरण में हूँ।
विलुठाम्यवनौ किमाकुल: किमुरो हन्मि शिरश्छिनि वा।
किमु रोदिमि रारटीमि क कृपणं मां न यदीक्षसे प्रभो।।16।।
मदनान्तक भत्तफवत्सल प्रियकैलास दयासुधम्बुध्े।।1।।
हे शर! संसार के कल्याण करने वाले शिव जी, हे पार्वती जगज्जननी के पति–पालकऋ ;अर्थात् भगवती पार्वती इस संसार की माता हैं, और आप उनके पति हैं तो पिफर संसार के पिता हैंद्ध हे मृड–सुख देने वाले, हे शम्भो! हे शशिखण्डमण्डन! अर्थात् चन्द्रमा की कला से सुशोभित सिर वाले, हे मदनान्तक! काम को भस्म करने वाले, हे भत्तफवत्सल! हे प्रियकैलास! अर्थात् कैलासवास को पसन्द करने वाले, हे दयासुधम्बुध्े! दया के सागर, आपकी जय हो अर्थात् आप सर्वोत्कृष्ट हैं, आपको नमस्कार है। ;यहाँ भत्तफ का भगवान् के प्रति अपकृष्ट होना अर्थात् सि( है, अत: व्य नावृत्ति से नमस्कार अभिव्यत्तफ होता है।
सदुपायकथास्वपण्डितो हृदये दु:खशरेण खण्डित:।
शशिखण्डमण्डनं शरणं यामि शरण्यमीरम्।।2।।
हे शम्भो! मेरा हृदय दु:ख रूपीबाण से पीडित है, और मैं इस दु:ख को दूर करने वाले किसी उत्तम उपाय को भी नहीं जानता हूँ अतएव चन्द्रकला व शिखण्ड मयूरपिच्छ का आभूषण बनाने वाले, शरणागत के रक्षक परमेश्वर आपकी शरण में हूँ। अर्थात् आप ही मुझे इस भयंकर संसार के दु:ख से दूर करें।
महत: परित: प्रसर्पतस्तमसो दर्शनभेदिनो भिदे।
दिननाथ इव स्वतेजसा हृदयव्योम्नि मनागुदेहि न:।।3।।
हे शम्भो हमारे हृदय आकाश में, आप सूर्य की तरह अपने तेज से चारों ओर घिरे हुए, ज्ञानदृष्टि को रोकने वाले, इस अज्ञानान्ध्कार को दूर करने के लिए प्रकट हो जाओ। ;सूर्य जिस प्रकार अपने तेज–प्रकाश से रात्रिा जन्य अन्ध्कार को दूर कर देता है, उसी प्रकार आप भी यदि हमारे हृदय में प्रकट रहेंगे अर्थात् हमारे यान में रहेंगे तो जरूर हमारा भी कुछ न कुछ अज्ञानान्ध्कार दूर हो जायेगाद्ध।
न वयं तव चर्मचक्षुषा पदवीमप्युपवीक्षितुं क्षमा:।
कृपयाभयदेन चक्षुषा सकलेनेश विलोकयाशु न:।।4।।
हे ईश! हम इन चर्मचक्षु अर्थात् स्थूल नेत्राों से ;तुम्हारे धम तक पहुँचने वालेद्ध रास्ते को भी नहीं देख सकते हैं, अत: कृपा करके आप प्राणियों को अभय प्रदान करने वाले अपनी दयादृष्टि से हमें अच्छी तरह शीघ्र देखें। तात्पर्य यह है कि जब हम अपनी स्थूल दृष्टि ;सीध्े सीध्े विचारोंद्ध से आपके दर्शन कराने वाले मार्ग तक को नहीं देख सकते, तब साक्षात् दर्शन कैसे कर सकते हैं, अत: हे भगवन्! आप हमें अपनी कृपाभरी पूरी निगाहों से इस प्रकार देखें कि जिससे हमारे में आपके दर्शन करने की क्षमता आ जाय।
त्वदनुस्मृतिरेव पावनी स्तुतियुत्तफा न हि वत्तफुमीश सा।
मध्ुरं हि पय: स्वभावतो ननु कीक् सितशर्करान्वितम्।।5।।
हे ईश! आपका स्मरण ही परम पवित्रा है, तब स्तुतिरूप में या प्रशंसात्मक व्याख्यान में उसको क्या कहा जा सकता है? क्योंकि दूध् स्वभाव से ही मीठा हैऋ यदि उसमें चीनी डाल दी जाय तो पिफर कहना ही क्या? तात्पर्य यह है कि आपके स्मरण कीर्तन व यान से ही जब इतना आनन्द मिलता है, तो पिफर प्रशंसात्मक पद्यों के द्वारा स्तुति के द्वारा या कविता के रूप में कहा गया, आपके गुणों का गान कितना आनन्द प्रदान नहीं करेगा, यह कहा नहीं जा सकता है। स्वभावत: मध्ुर दूध् में चीनी डाल देने से, जिस प्रकार उसका माध्ुर्य बढ़ जाता है इसी प्रकार अच्छे शब्दों में कीखतत भगवाम भी अध्कि आनन्द प्रदान करता है। अथवा आपके स्वरूप का प्रतिपादन तो वाणी का विषय नहीं है, यदि वह किसी भी वाणी का विषय होता तो पिफर उस से कितना आनन्द आता, यह भी इस पद्य का रहस्य है।
सविषोप्यमृतायते भवाछवमुण्डाभरणोपि पावन:।
भव एव भवान्तक: सतां समदृखिवषमेक्षणोपि सन्।।6।।
हे शम्भो! आप विषसहित होते हुए भी अमृत के समान हैं, शवों के मुण्डों से सुशोभित होते हुए भी पवित्रा हैं। स्वयं ;जगत् के उत्पादकद्ध भव होते हुए भी, सज्जनों के या सन्तों के ;सांसारिक बन्ध्नद्ध को दूर करने वाले हैं। विषमनेत्रा अर्थात् तीन नेत्रा ;सूर्य, अग्नि, चन्द्र नेत्राद्ध वाले होते हुए भी समदृष्टि अर्थात् पक्षपात रहित हैं।
अपि शूलध्रो निरामयो दृढवैराग्यरतोपि रागवान्।
अपि भैक्ष्यचरो महेररितं चित्रामिदं हि ते प्रभो।।7।।
हे प्रभो! आप शूलध्र–त्रिाशूल को धरण करने वाले, ;शूल–रोग विशेष से युत्तफद्ध होते हुए भी, निरामय–नीरोग हो अर्थात् आप संसार के जन्म जरा मरणादि रोगों से अथवा आयात्मिक, आध्दिैविक और आध्भिौतिकादि द्वन्दों से दूर हैं। दृढवैराग्य से युत्तफ होते हुए भी रागवाले हो, अर्थात् भत्तफों के अनु नात्मक राग से युत्तफ हो। इसीलिए जल्दी प्रस हो जाते हो अत: सरस हो, अन्यथा कठोर दिलवाले का तो जल्दी प्रस होना मुशिकल है। अथवा ‘राग’ यह भी आनन्द की ही अन्यतम मात्राा है जिससे आप भत्तफों को संतुष्ट करते हैं। भगवान् शर को आशुतोष कहने का कदाचिद् यही रहस्य हो। स्वयं भिक्षावृत्ति वाले होते हुए भी महान् ऐश्वर्य सम्प आप है, आपका यह ;विरोधभासात्मकद्ध जो चरित है, वह बड़ा ही आ र्यजनक है।
वितरत्यभिवाछितं दृशा परिदृ: किल कल्पपादप:।
हृदये स्मृत एव ध्ीमते नमतेभीपफलप्रदो भवान्।।8।।
कल्पवृक्ष तो आँखों से देखे जाने पर ही किसी मनोवाछित वस्तु को प्रदान करता है, परन्तु आप तो केवल हृदय में स्मरण से ही नमस्कार करने वाले सद्विचारसंप जन के लिए अभीष्ट पफल प्रदान करते हैं।
सहसैव भुजपाश्वान् विनिगृाति न यावदन्तक:।
अभयं कुरु तावदाशु मे गतजीवस्य पुन: किमौषध्ै:।।9।।
भुज के समान भयंकर पाशवाला यमराज, जब तक अकस्मात् ;मुझेद्ध ग्रहण नहीं कर लेता है, अर्थात् मेरे प्राणों का हरण नहीं कर लेता है, तब तक जल्दी ही मेरे लिए आप अभयदान दें, अर्थात् मोक्ष प्रदान करें। नहीं तो पिफर जीवन समाप्त होने के बाद तो, औषधि् से भी कुछ बनने का नहीं।
सविषैरिव भोगपगैखवषयैरेभिरलं परिक्षतम्।
अमृतैरिव संभ्रमेण मामभिषिाशु दयावलोकनै:।।10।।
विषधरी भारी साँपों के समान इन सांसारिक विषयों ने मुझे भयभीत कर रखा है, अत: इनसे मैं परेशान हूँ। कृपया अमृत के समान ;जीवनदायक अथवा मुत्तिफसाध्कद्ध अपने कृपाकटाक्षों के अवलोकन से मुझे बचाइए।
मुनयो बहवोद्य ध्न्यतां गमिता: स्वाभिमतार्थदखशन:।
करुणाकर येन तेन मामवसं ननु पश्य चक्षुषा।।11।।
हे करुणानिधन! अपने अपने अभी अर्थ ;प्रयोजनद्ध को देखने वाले बहुत से मुनियों को अपने अपने जिस कृपावलोकन ;दयादृद्धि के द्वारा ध्न्यता पूर्ण बनाया, ;पिफरद्ध आज अवस नाश को प्राप्त हुए मुझको भी, उसी कृपापूर्ण दृि से निि त देखिए।
प्रणमाम्यथ यामि चापरं शरणं कं कृपणाभयप्रदम्।
विरहीव विभो प्रियामयं परिपश्यामि भवन्मयं जगत्।।12।।
हे प्रभो! अब मैं आपको प्रणाम करता हूँ, और आपकी शरण लेता हूँ। दीनों को अभयदान देने वाले आपको छोड़कर और ;अन्यद्ध किसकी शरण में मैं जाऊँ? कोई विरही जिस प्रकार सारे संसार को प्रियामय देखता है, हे विभो! उसी प्रकार मैं भी ;आपके विरह मेंद्ध इस समस्त चराचर जगत् को आपमय अर्थात् शिवमय देखता हूँ। जैसे कोई रागी अपनी प्रिया में अत्यन्त आसत्तफ होता है, अन्य किसी पदार्थ में उसी रुचि नहीं होती है, कहने का तात्पर्य यह है कि संसार में उसके लिए प्रिया से उत्कृ वस्तु पिफर कोई नहीं है, दर्शन की भाषा में हम जिसे ‘प्रियाद्वैत’ भी कह सकते हैंऋ इसी प्रकार शिवभत्तफ भी जब शिव को ही परमप्रेमास्पद मानता है, एक क्षण भी उससे अपने को विमुत्तफ नहीं होना चाहता है, तो उसके लिए भी पिफर यह संसार तो नहीं के समान है, अर्थात् सर्वत्रा ‘शिवाद्वैत’ भावना हीं है।
बहवो भवतानुकम्पिता: किमितीशान न मानकम्पसे।
दध्ता किमु मन्दराचलं परमाणु: कमठेन दुध्र्र:।।13।।
हे शम्भो! आपने बहुतों के ऊपर अनुकम्पा की है, पिफर क्यों आप मेरे ऊपर अनुकम्पा नहीं करते हैं? जो कमठ–कच्छुवा अपनी पीठ पर इतने बडे़ मन्दराचल को धरण कर सकता है, तो पिफर वह एक परमाणु को धरण नहीं कर सकता क्या?
अर्थात् जिस प्रकार बहुत बडे़ मन्दराचल को धरण करने वाले कमठ के लिए परमाणु धरण करना कोई कठिन नहीं है, इसी प्रकार इतने बडे़ संसार का उ(ार करने वाले आपके लिए भी, परमाणु तुल्य मेरा उ(ार करना भी आसान है।
अशुच यदि मानुमन्यसे किमिदं मूखन कपालदाम ते।
उत शाठ्यमसाध्ुसनिं विषलक्ष्मासि न क द्विजिध्ृक्।।14।।
;भत्तफ अपने प्रभु को इस पद्य में उलाहना देकर कह रहा है किद्ध– हे विभो! यदि आप मनुष्य होने के नाते मुझे अपवित्रा समझते हैं, तो पिफर आपने अपने मस्तक में नरकपालों की यह अपवित्रा माला कैसे पहन ली, क्या यह अपवित्रा नहीं है? अथवा दुों के साथ रहने से मुझे शठ समझकर मेरा उ(ार नहीं कर रहे हैं, मेरी उपेक्षा कर रहे हैं, तो पिफर आप द्विजिध्ृक साँप को धरण करके अथवा द्विजिध्ृक चुगलखोर को साथ में रखकर ‘शठ’ अथवा अलक्षण या कुलक्षण वाले नहीं है क्या?
दृशं विदधमि क करोम्यनुतिशमि कथं भयाकुल:।
नु तिश्सि रक्ष रक्ष मामयि शम्भो शरणागतोस्मि ते।।15।।
हे शम्भो! मैं अब किध्र देखूँ ;दृि लगाऊँद्ध क्या करूँ, भयभीत मैं कैसे यहां रहूँ? हे प्रभो! आप कहाँ हैं? मेरी रक्षा करें। मैं ;अबद्ध आपकी हीं शरण में हूँ।
विलुठाम्यवनौ किमाकुल: किमुरो हन्मि शिरश्छिनि वा।
किमु रोदिमि रारटीमि क कृपणं मां न यदीक्षसे प्रभो।।16।।
द्वादशज्योतिर्लिंगस्तोत्रम्
सौराष्ट्रदेशे विशदेऽतिरम्ये ज्योतिर्मयं चन्द्रकलावतंसम्।
भक्तिप्रदानाय कृपावतीर्णं तं सोमनाथं शरणं प्रपद्ये।।1।।
जो भगवान् शंकर अपनी भक्ति प्रदान करने के लिए परम रमणीय व स्वच्छ सौराष्ट्र प्रदेश गुजरात में कृपा करके अवतीर्ण हुए हैं, मैं उन्हीं ज्योतिर्मयलिंगस्वरूप, चन्द्रकला को आभूषण बनाये हुए भगवान् श्री सोमनाथ की शरण में जाता हूं।
श्रीशैलशृंगे विबुधातिसंगे तुलाद्रितुंगेऽपि मुदा वसन्तम्।
तमर्जुनं मल्लिकपूर्वमेकं नमामि संसारसमुद्रसेतुम्।।2।।
ऊंचाई की तुलना में जो अन्य पर्वतों से ऊंचा है, जिसमें देवताओं का समागम होता रहता है, ऐसे श्रीशैलश्रृंग में जो प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं, और जो संसार सागर को पार करने के लिए सेतु के समान हैं, उन्हीं एकमात्र श्री मल्लिकार्जुन भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ।
अवन्तिकायां विहितावतारं मुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम्।
अकालमृत्यो: परिरक्षणार्थं वन्दे महाकालमहासुरेशम्।।3।।
जो भगवान् शंकर संतजनों को मोक्ष प्रदान करने के लिए अवन्तिकापुरी उज्जैन में अवतार धारण किए हैं, अकाल मृत्यु से बचने के लिए उन देवों के भी देव महाकाल नाम से विख्यात महादेव जी को मैं नमस्कार करता हूं।
कावेरिकानर्मदयो: पवित्रे समागमे सज्जनतारणाय।
सदैव मान्धातृपुरे वसन्तमोंकारमीशं शिवमेकमीडे।।4।।
जो भगवान् शंकर सज्जनों को इस संसार सागर से पार उतारने के लिए कावेरी और नर्मदा के पवित्र संगम में स्थित मान्धता नगरी में सदा निवास करते हैं, उन्हीं अद्वितीय ‘ओंकारेश्वर’ नाम से प्रसिद्ध श्री शिव की मैं स्तुति करता हूं।
पूर्वोत्तरे प्रज्वलिकानिधाने सदा वसन्तं गिरिजासमेतम्।
सुरासुराराधितपादपद्मं श्रीवैद्यनाथं तमहं नमामि।।5।।
जो भगवान् शंकर पूर्वोत्तर दिशा में चिताभूमि वैद्यनाथ धाम के अन्दर सदा ही पार्वती सहित विराजमान हैं, और देवता व दानव जिनके चरणकमलों की आराधना करते हैं, उन्हीं ‘श्री वैद्यनाथ’ नाम से विख्यात शिव को मैं प्रणाम करता हूं।
याम्ये सदंगे नगरेतिऽरम्ये विभूषितांगम् विविधैश्च भोगै:।
सद्भक्तिमुक्तिप्रदमीशमेकं श्रीनागनाथं शरणं प्रपद्ये।।6।।
जो भगवान् शंकर दक्षिण दिशा में स्थित अत्यन्त रमणीय सदंग नामक नगर में अनेक प्रकार के भोगों तथा नाना आभूषणों विभूषित हैं, जो एकमात्र सुन्दर पराभक्ति तथा मुक्ति को प्रदान करते है, उन्हीं अद्वितीय श्री नागनाथ नामक शिव की मैं शरण में जाता हूं।
महाद्रिपार्श्वे च तटे रमन्तं सम्पूज्यमानं सततं मुनीन्द्रैः।
सुरासुरैर्यक्षमहोरगाद्यै: केदारमीशं शिवमेकमीडे।।7।।
जो भगवान् शंकर पर्वतराज हिमालय के समीप मन्दाकिनी के तट पर स्थित केदारखण्ड नामक श्रृंग में निवास करते हैं, तथा मुनीश्वरों के द्वारा हमेशा पूजित हैं, देवता-असुर, यक्ष-किन्नर व नाग आदि भी जिनकी हमेशा पूजा किया करते हैं, उन्हीं अद्वितीय कल्याणकारी केदारनाथ नामक शिव की मैं स्तुति करता हूं।
सह्याद्रिशीर्षे विमले वसन्तं गोदावरीतीरपवित्रदेशे।
यद्दर्शनात् पातकमाशु नाशं प्रयाति तं त्रयम्बकमीशमीडे।।8।।
जो भगवान् शंकर गोदावरी नदी के पवित्र तट पर स्थित स्वच्छ सह्याद्रिपर्वत के शिखर पर निवास करते हैं, जिनके दर्शन से शीघ्र सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, उन्हीं त्रयम्बकेश्वर भगवान् की मैं स्तुति करता हूं।
सुताम्रपर्णीजलराशियोगे निबध्य सेतुं विशिखैरसंख्यै:।
श्रीरामचन्द्रेण समर्पितं तं रामेश्वराख्यं नियतं नमामि।।9।।
जो भगवान् शंकर सुन्दर ताम्रपर्णी नामक नदी व समुद्र के संगम में श्री रामचन्द्र जी के द्वारा अनेक बाणों से या वानरों द्वारा पुल बांधकर स्थापित किये गये हैं, उन्हीं श्रीरामेश्वर नामक शिव को मैं नियम से प्रणाम करता हूं।
यं डाकिनीशाकिनिकासमाजे निषेव्यमाणं पिशिताशनैश्च।
सदैव भीमादिपदप्रसिद्धं तं शंकरं भक्तहितं नमामि।।10।।
जो भगवान् शंकर डाकिनी और शाकिनी समुदाय में प्रेतों के द्वारा सदैव सेवित होते हैं, अथवा डाकिनी नामक स्थान में प्रेतों द्वारा जो सेवित होते हैं, उन्हीं भक्तहितकारी भीमशंकर नाम से प्रसिद्ध शिव को मैं प्रणाम करता हूं।
सानन्दमानन्दवने वसन्तमानन्दकन्दं हतपापवृन्दम्।
वाराणसीनाथमनाथनाथं श्रीविश्वनाथं शरणं प्रपद्ये।।11।।
जो भगवान् शंकर आनन्दवन काशी क्षेत्र में आनन्दपूर्वक निवास करते हैं, जो परमानन्द के निधान एवं आदिकारण हैं, और जो पाप समूह का नाश करने वाले हैं, ऐसे अनाथों के नाथ काशीपति श्री विश्वनाथ की मैं शरण में जाता हूं।
इलापुरे रम्यविशालकेऽस्मिन् समुल्लसन्तं च जगद्वरेण्यम्।
वन्दे महोदारतरं स्वभावं घृष्णेश्वराख्यं शरणं प्रपद्ये॥ 12॥
जो इलापुर के सुरम्य मंदिर में विराजमान होकर समस्त जगत के आराधनीय हो रहे हैं, जिनका स्वभाव बड़ा ही उदार है, मैं उन घृष्णेश्वर नामक ज्योतिर्मय भगवान शिव की शरण में जाता हूं।
ज्योतिर्मयद्वादशलिंगकानां शिवात्मनां प्रोक्तमिदं क्रमेण।
स्तोत्रं पठित्वा मनुजोऽतिभक्त्या फलं तदालोक्य निजं भजेच्च॥ 13॥
यदि मनुष्य क्रमपूर्वक कहे गये इन बारह ज्योतिर्लिंगों के स्तोत्र का भक्तिपूर्वक पाठ करे तो इनके दर्शन से होने वाले फल को प्राप्त कर सकता है।
भक्तिप्रदानाय कृपावतीर्णं तं सोमनाथं शरणं प्रपद्ये।।1।।
जो भगवान् शंकर अपनी भक्ति प्रदान करने के लिए परम रमणीय व स्वच्छ सौराष्ट्र प्रदेश गुजरात में कृपा करके अवतीर्ण हुए हैं, मैं उन्हीं ज्योतिर्मयलिंगस्वरूप, चन्द्रकला को आभूषण बनाये हुए भगवान् श्री सोमनाथ की शरण में जाता हूं।
श्रीशैलशृंगे विबुधातिसंगे तुलाद्रितुंगेऽपि मुदा वसन्तम्।
तमर्जुनं मल्लिकपूर्वमेकं नमामि संसारसमुद्रसेतुम्।।2।।
ऊंचाई की तुलना में जो अन्य पर्वतों से ऊंचा है, जिसमें देवताओं का समागम होता रहता है, ऐसे श्रीशैलश्रृंग में जो प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं, और जो संसार सागर को पार करने के लिए सेतु के समान हैं, उन्हीं एकमात्र श्री मल्लिकार्जुन भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ।
अवन्तिकायां विहितावतारं मुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम्।
अकालमृत्यो: परिरक्षणार्थं वन्दे महाकालमहासुरेशम्।।3।।
जो भगवान् शंकर संतजनों को मोक्ष प्रदान करने के लिए अवन्तिकापुरी उज्जैन में अवतार धारण किए हैं, अकाल मृत्यु से बचने के लिए उन देवों के भी देव महाकाल नाम से विख्यात महादेव जी को मैं नमस्कार करता हूं।
कावेरिकानर्मदयो: पवित्रे समागमे सज्जनतारणाय।
सदैव मान्धातृपुरे वसन्तमोंकारमीशं शिवमेकमीडे।।4।।
जो भगवान् शंकर सज्जनों को इस संसार सागर से पार उतारने के लिए कावेरी और नर्मदा के पवित्र संगम में स्थित मान्धता नगरी में सदा निवास करते हैं, उन्हीं अद्वितीय ‘ओंकारेश्वर’ नाम से प्रसिद्ध श्री शिव की मैं स्तुति करता हूं।
पूर्वोत्तरे प्रज्वलिकानिधाने सदा वसन्तं गिरिजासमेतम्।
सुरासुराराधितपादपद्मं श्रीवैद्यनाथं तमहं नमामि।।5।।
जो भगवान् शंकर पूर्वोत्तर दिशा में चिताभूमि वैद्यनाथ धाम के अन्दर सदा ही पार्वती सहित विराजमान हैं, और देवता व दानव जिनके चरणकमलों की आराधना करते हैं, उन्हीं ‘श्री वैद्यनाथ’ नाम से विख्यात शिव को मैं प्रणाम करता हूं।
याम्ये सदंगे नगरेतिऽरम्ये विभूषितांगम् विविधैश्च भोगै:।
सद्भक्तिमुक्तिप्रदमीशमेकं श्रीनागनाथं शरणं प्रपद्ये।।6।।
जो भगवान् शंकर दक्षिण दिशा में स्थित अत्यन्त रमणीय सदंग नामक नगर में अनेक प्रकार के भोगों तथा नाना आभूषणों विभूषित हैं, जो एकमात्र सुन्दर पराभक्ति तथा मुक्ति को प्रदान करते है, उन्हीं अद्वितीय श्री नागनाथ नामक शिव की मैं शरण में जाता हूं।
महाद्रिपार्श्वे च तटे रमन्तं सम्पूज्यमानं सततं मुनीन्द्रैः।
सुरासुरैर्यक्षमहोरगाद्यै: केदारमीशं शिवमेकमीडे।।7।।
जो भगवान् शंकर पर्वतराज हिमालय के समीप मन्दाकिनी के तट पर स्थित केदारखण्ड नामक श्रृंग में निवास करते हैं, तथा मुनीश्वरों के द्वारा हमेशा पूजित हैं, देवता-असुर, यक्ष-किन्नर व नाग आदि भी जिनकी हमेशा पूजा किया करते हैं, उन्हीं अद्वितीय कल्याणकारी केदारनाथ नामक शिव की मैं स्तुति करता हूं।
सह्याद्रिशीर्षे विमले वसन्तं गोदावरीतीरपवित्रदेशे।
यद्दर्शनात् पातकमाशु नाशं प्रयाति तं त्रयम्बकमीशमीडे।।8।।
जो भगवान् शंकर गोदावरी नदी के पवित्र तट पर स्थित स्वच्छ सह्याद्रिपर्वत के शिखर पर निवास करते हैं, जिनके दर्शन से शीघ्र सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, उन्हीं त्रयम्बकेश्वर भगवान् की मैं स्तुति करता हूं।
सुताम्रपर्णीजलराशियोगे निबध्य सेतुं विशिखैरसंख्यै:।
श्रीरामचन्द्रेण समर्पितं तं रामेश्वराख्यं नियतं नमामि।।9।।
जो भगवान् शंकर सुन्दर ताम्रपर्णी नामक नदी व समुद्र के संगम में श्री रामचन्द्र जी के द्वारा अनेक बाणों से या वानरों द्वारा पुल बांधकर स्थापित किये गये हैं, उन्हीं श्रीरामेश्वर नामक शिव को मैं नियम से प्रणाम करता हूं।
यं डाकिनीशाकिनिकासमाजे निषेव्यमाणं पिशिताशनैश्च।
सदैव भीमादिपदप्रसिद्धं तं शंकरं भक्तहितं नमामि।।10।।
जो भगवान् शंकर डाकिनी और शाकिनी समुदाय में प्रेतों के द्वारा सदैव सेवित होते हैं, अथवा डाकिनी नामक स्थान में प्रेतों द्वारा जो सेवित होते हैं, उन्हीं भक्तहितकारी भीमशंकर नाम से प्रसिद्ध शिव को मैं प्रणाम करता हूं।
सानन्दमानन्दवने वसन्तमानन्दकन्दं हतपापवृन्दम्।
वाराणसीनाथमनाथनाथं श्रीविश्वनाथं शरणं प्रपद्ये।।11।।
जो भगवान् शंकर आनन्दवन काशी क्षेत्र में आनन्दपूर्वक निवास करते हैं, जो परमानन्द के निधान एवं आदिकारण हैं, और जो पाप समूह का नाश करने वाले हैं, ऐसे अनाथों के नाथ काशीपति श्री विश्वनाथ की मैं शरण में जाता हूं।
इलापुरे रम्यविशालकेऽस्मिन् समुल्लसन्तं च जगद्वरेण्यम्।
वन्दे महोदारतरं स्वभावं घृष्णेश्वराख्यं शरणं प्रपद्ये॥ 12॥
जो इलापुर के सुरम्य मंदिर में विराजमान होकर समस्त जगत के आराधनीय हो रहे हैं, जिनका स्वभाव बड़ा ही उदार है, मैं उन घृष्णेश्वर नामक ज्योतिर्मय भगवान शिव की शरण में जाता हूं।
ज्योतिर्मयद्वादशलिंगकानां शिवात्मनां प्रोक्तमिदं क्रमेण।
स्तोत्रं पठित्वा मनुजोऽतिभक्त्या फलं तदालोक्य निजं भजेच्च॥ 13॥
यदि मनुष्य क्रमपूर्वक कहे गये इन बारह ज्योतिर्लिंगों के स्तोत्र का भक्तिपूर्वक पाठ करे तो इनके दर्शन से होने वाले फल को प्राप्त कर सकता है।
लिङ्गाष्टकम्
ब्रह्ममुरारिसुरार्चितलिंगम् , निर्मलभासितशोभितलिंगम्।
जन्मजदु:खविनाशकलिंगम्, तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम्।।1।।
मैं भगवान् सदाशिव के उस लिंग को प्रणाम करता हूं, जो लिंग ब्रह्मा, विष्णु व अन्य देवताओं से भी पूजित है, जो निर्मल कान्ति से सुशोभित है, तथा जन्म-जरा आदि दु:खों को दूर करने वाला है।
देवमुनिप्रवरार्चितलिंगम् , कामदहं करुणाकरलिंगम्।
रावणदर्पविनाशनलिंगम्, तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम्।।2।।
मैं भगवान् सदाशिव के उस लिंग को प्रणाम करता हूं, जो लिंग देवताओं व श्रेष्ठ मुनियों द्वारा पूजित है, जिसने क्रोधानल से कामदेव को भस्म कर दिया, जो दया का सागर है और जिसने लंकापति रावण के भी दर्प का नाश किया है।
सर्वसुगन्धिसुलेपितलिंगम् , बुद्धिविवर्द्धनकारणलिंगम् ।
सिद्धसुरासुरवन्दितलिंगम्, तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम्।।3।।
मैं भगवान् सदाशिव के उस लिंग को प्रणाम करता हूं, जो सभी प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों से लिप्त है, अथवा सुगन्धयुक्त नाना द्रव्यों से पूजित है, और जिसका पूजन व भजन बुद्धि के विकास में एकमात्र कारण है तथा जिसकी पूजा सिद्ध, देव व दानव हमेशा करते हैं।
कनकमहामणिभूषितलिंगम्, फणिपतिवेष्टितशोभितलिंगम्।
दक्षसुयज्ञविनाशनलिंगम्, तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम्।।4।।
मैं भगवान् सदाशिव के उस लिंग को प्रणाम करता हूं, जो लिंग सुवर्ण व महामणियों से भूषित है, जो नागराज वासुकि से वेष्टित है, और जिसने दक्षप्रजापति के यज्ञ का नाश किया है।
कुंकुमचन्दनलेपितलिंगम् , पंकजहारसुशोभितलिंगम्।
संचितपापविनाशनलिंगम्, तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम्।।5।।
मैं भगवान् सदाशिव के उस लिंग को प्रणाम करता हूं, जो लिंग केशरयुक्त चन्दन से लिप्त है और कमल के पुष्पों के हार से सुशोभित है, जिस लिंग के अर्चन व भजन से पूर्वजन्म या जन्म-जन्मान्तरों के सञ्चित अर्थात् एकत्रित हुए पापकर्म नष्ट हो जाते हैं, अथवा समुदाय रूप में उपस्थित हुए जो आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक त्रिविध ताप हैं, वे नष्ट हो जाते हैं।
देवगणार्चितसेवितलिंगम्, भावैर्भक्तिभिरेव च लिंगम्।
दिनकरकोटिप्रभाकरलिंगम्, तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम्।।6।।
मैं भगवान् सदाशिव के उस लिंग को प्रणाम करता हूं, जो लिंग देवगणों से पूजित तथा भावना और भक्ति से सेवित है, और जिस लिंग की प्रभा–कान्ति या चमक करोड़ों सूर्यों की तरह है।
अष्टदलोपरिवेष्टितलिंगम् , सर्वसमुद्भवकारणलिंगम्।
अष्टदरिद्रविनाशितलिंगम्, तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम्।।7।।
मैं भगवान् सदाशिव के उस लिंग को प्रणाम करता हूं, जो लिंग अष्टदल कमल के ऊपर विराजमान है, और जो सम्पूर्ण जीव–जगत् के उत्पत्ति का कारण है, तथा जिस लिंग की अर्चना से अणिमा महिमा आदि के अभाव में होने वाला आठ प्रकार का जो दारिद्र्य है, वह भी नष्ट हो जाता है।
सुरगुरुसुरवरपूजितलिंगम् , सुरवनपुष्पसदार्चितलिंगम्।
परात्परं परमात्मकलिंगम् , तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम्।।8।।
मैं भगवान् सदाशिव के उस लिंग को प्रणाम करता हूं, जो लिंग बृहस्पति तथा देवश्रेष्ठों से पूजित है, और जिस लिंग की पूजा देववन अर्थात् नन्दनवन के पुष्पों से की जाती है, जो भगवान् सदाशिव का लिंग स्थूल–दृश्यमान इस जगत् से परे जो अव्यक्त–प्रकृति है, उससे भी परे सूक्ष्म अथवा व्यापक है, अत: वही सबका वन्दनीय तथा अतिशय प्रिय आत्मा है।
लिंगाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेच्छिवसन्निधौ।
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते॥ 9॥
जो भगवान शिव के निकट इस लिंगाष्टक स्तोत्र का पाठ करता है वह निश्चित ही शिवलोक में निवास करता है और शिव के साथ अत्यंत आनंद को प्राप्त करता है।
जन्मजदु:खविनाशकलिंगम्, तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम्।।1।।
मैं भगवान् सदाशिव के उस लिंग को प्रणाम करता हूं, जो लिंग ब्रह्मा, विष्णु व अन्य देवताओं से भी पूजित है, जो निर्मल कान्ति से सुशोभित है, तथा जन्म-जरा आदि दु:खों को दूर करने वाला है।
देवमुनिप्रवरार्चितलिंगम् , कामदहं करुणाकरलिंगम्।
रावणदर्पविनाशनलिंगम्, तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम्।।2।।
मैं भगवान् सदाशिव के उस लिंग को प्रणाम करता हूं, जो लिंग देवताओं व श्रेष्ठ मुनियों द्वारा पूजित है, जिसने क्रोधानल से कामदेव को भस्म कर दिया, जो दया का सागर है और जिसने लंकापति रावण के भी दर्प का नाश किया है।
सर्वसुगन्धिसुलेपितलिंगम् , बुद्धिविवर्द्धनकारणलिंगम् ।
सिद्धसुरासुरवन्दितलिंगम्, तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम्।।3।।
मैं भगवान् सदाशिव के उस लिंग को प्रणाम करता हूं, जो सभी प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों से लिप्त है, अथवा सुगन्धयुक्त नाना द्रव्यों से पूजित है, और जिसका पूजन व भजन बुद्धि के विकास में एकमात्र कारण है तथा जिसकी पूजा सिद्ध, देव व दानव हमेशा करते हैं।
कनकमहामणिभूषितलिंगम्, फणिपतिवेष्टितशोभितलिंगम्।
दक्षसुयज्ञविनाशनलिंगम्, तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम्।।4।।
मैं भगवान् सदाशिव के उस लिंग को प्रणाम करता हूं, जो लिंग सुवर्ण व महामणियों से भूषित है, जो नागराज वासुकि से वेष्टित है, और जिसने दक्षप्रजापति के यज्ञ का नाश किया है।
कुंकुमचन्दनलेपितलिंगम् , पंकजहारसुशोभितलिंगम्।
संचितपापविनाशनलिंगम्, तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम्।।5।।
मैं भगवान् सदाशिव के उस लिंग को प्रणाम करता हूं, जो लिंग केशरयुक्त चन्दन से लिप्त है और कमल के पुष्पों के हार से सुशोभित है, जिस लिंग के अर्चन व भजन से पूर्वजन्म या जन्म-जन्मान्तरों के सञ्चित अर्थात् एकत्रित हुए पापकर्म नष्ट हो जाते हैं, अथवा समुदाय रूप में उपस्थित हुए जो आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक त्रिविध ताप हैं, वे नष्ट हो जाते हैं।
देवगणार्चितसेवितलिंगम्, भावैर्भक्तिभिरेव च लिंगम्।
दिनकरकोटिप्रभाकरलिंगम्, तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम्।।6।।
मैं भगवान् सदाशिव के उस लिंग को प्रणाम करता हूं, जो लिंग देवगणों से पूजित तथा भावना और भक्ति से सेवित है, और जिस लिंग की प्रभा–कान्ति या चमक करोड़ों सूर्यों की तरह है।
अष्टदलोपरिवेष्टितलिंगम् , सर्वसमुद्भवकारणलिंगम्।
अष्टदरिद्रविनाशितलिंगम्, तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम्।।7।।
मैं भगवान् सदाशिव के उस लिंग को प्रणाम करता हूं, जो लिंग अष्टदल कमल के ऊपर विराजमान है, और जो सम्पूर्ण जीव–जगत् के उत्पत्ति का कारण है, तथा जिस लिंग की अर्चना से अणिमा महिमा आदि के अभाव में होने वाला आठ प्रकार का जो दारिद्र्य है, वह भी नष्ट हो जाता है।
सुरगुरुसुरवरपूजितलिंगम् , सुरवनपुष्पसदार्चितलिंगम्।
परात्परं परमात्मकलिंगम् , तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगम्।।8।।
मैं भगवान् सदाशिव के उस लिंग को प्रणाम करता हूं, जो लिंग बृहस्पति तथा देवश्रेष्ठों से पूजित है, और जिस लिंग की पूजा देववन अर्थात् नन्दनवन के पुष्पों से की जाती है, जो भगवान् सदाशिव का लिंग स्थूल–दृश्यमान इस जगत् से परे जो अव्यक्त–प्रकृति है, उससे भी परे सूक्ष्म अथवा व्यापक है, अत: वही सबका वन्दनीय तथा अतिशय प्रिय आत्मा है।
लिंगाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेच्छिवसन्निधौ।
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते॥ 9॥
जो भगवान शिव के निकट इस लिंगाष्टक स्तोत्र का पाठ करता है वह निश्चित ही शिवलोक में निवास करता है और शिव के साथ अत्यंत आनंद को प्राप्त करता है।