शिवानन्दलहरी
शिवानन्दलहरी
शिवयोगी रघुवंशपुरी जी
कलाभ्यां चूडालंकृतशशिकलाभ्यां निजतप:
पफलाभ्यां भक्तेषु प्रकटितपफलाभ्यां भवतु मे।
शिवाभ्यामस्तोकत्रिाभुवनशिवाभ्यां हृदि पुन
र्भवाभ्यामानन्दस्पफुरदनुभवाभ्यां नतिरियम्।।1।।
भत्तफों के विषय में ;भत्तफ वात्सल्य रूपद्ध स्पष्ट है पफल जिनका, अर्थात् भत्तफों की कामनाओं को जो सद्य: सपफल बना देते हैं। जिनकी तपस्या के पफल के समान, शेखर में सुशोभित चन्द्रकला विराजमान है, स्वयं जो ;स्थित्युत्तिप्रलयादिद्ध कलाओं से सम्प हैं, स्वयं कल्याणस्वरूप समस्त संसार के कल्याणकारक, पुन: हृदय में जो आनन्द व अनुभव के रूप में स्पफुरित होते रहते हैं, ऐसे जगज्जननी माता पार्वती व जगत् पिता परमेश्वर शिव के लिए मेरा यह प्रणाम है।
गलन्ती शंभो त्वच्चरितसरित: किल्बिषरजो
दलन्ती ध्ीकुल्यासरणिषु पतन्ती विजयताम्।
दिशन्ती संसारभ्रमणपरितापोपशमनं
वसन्ती मच्चेतोदभुवि शिवानन्दलहरी।।2।।
हे शम्भो! आपके ;विचित्राद्ध चरित्रारूपी सरिताओं से निकलने वाली, पापरूपी ध्ूलि को नष्ट करने वाली, अथवा पापरूप दु:खात्मक जो रजोगुण है, उसको दूर करने वाली, विभि बुि( वृत्तियों में प्रतिपफलित होने वाली, तथा संसार जन्य जो परिताप है, उसको शान्त करने वाली, मेरे मन रूपी मानसरोवर में निरन्तर बसने वाली यह शिवानन्दलहरी ;शिवस्वरूप–आनन्द–की–तरंगद्ध सर्वोत्कृष्ट है, अर्थात् मेरे लिए तथा सभी के लिए नमस्करणीय है।
त्रायीवेद्यं हृद्यं त्रिापुरहरमाद्यं त्रिानयनं
जटाभारोदारं चलदुरगहारं मृगध्रम्।
महादेवं देवं मयिं सदयभावं पशुपत
चितालम्बं साम्बं शिवमतिबिडम्बं हृदि भध्े।।3।।
वेद व वेदान्त के द्वारा जानने योग्य, सुन्दर, त्रिापुरासुर को मारने वाले, चिरन्तन, त्रिानयन तीन नेत्रों वाले, घनी जटाओं से सुशोभित, जिनके गले में सर्प रूपी हार लटकरद्य है, ऐसे मृग को धरण करने वाले, मेरे लिए परम दयालु, देवताओं में महान् पशु–जीवों के पति स्वामी, पार्वतीसहित, अति विलक्षण स्वरूप वाले, ऐसे भगवान् शिव का मैं हृदय से भजन करता हूँ।
सहं बर्तन्ते जगति विबुध: क्षुापफलदा
न मन्ये स्वप्ने वा तदनुसरणं तत्कृतपफलम्।
हरिब्रादीनामपि निकटभाजामसुलभं
चिरं याचे शंभो शिव तव पदाम्भोजभजनम्।।4।।
हे शम्भो! संसार में क्षुद्रपफलों को देने वाले, हजारों देवता है, मैं तो स्वप्न में भी उनका अनुसरण, तथा उनके द्वारा अनन्त पफलों की कामना नहीं करता, हे शिव! मैं तो केवल, समीपस्थ ब्रा व विष्णु के लिऐ भी दुष्प्राप्य आपके चरणकमलों के भजन को ही सदा के लिए चाहता हूँ।
स्मृतौ शास्त्रो वैद्ये शकुनकवितागाानपफणितौ
पुराणे मन्त्रो वा स्तुतिनटनहास्येष्वचतुर:।
कथं राज्ञां प्रीतिर्भवति मयि कोहं पशुपते
पशुं मां सर्वज्ञ प्रथितकृपया पालय विभो।।5।।
हे शम्भो! हे पशुपते! मैं तो स्मृति, शास्त्रा, वैद्यकविद्या, शकुनविज्ञान, कवितापाठ आदि पुराणप्रवचन, मन्त्रा, तन्त्रा और स्तुति नाटक व हास्य कथाओं को विनोदपूर्वक कहने में अचतुर हूँ, तब बडे़ बडे़ राजा महाराजाओं की मेरे उपर कृपा कैसे हो सकती है, हे सर्वज्ञ! शम्भो! आप सर्वज्ञ हैं और पशुपति हैं। अत: अल्पज्ञ–पशुरूप इस जीव की, कृपा करके रक्षा कीजिए। उत्तफ पद्य में पशुपति व सर्वज्ञ ये सम्बोध्न साभिप्राय भी हैं, क्योंकि पशुपति पशुओं का जो मालिक होता है, उसका तो यह कर्तव्य ही है, कि पशुओं की देखभाल करना, इसमें भी सर्वज्ञ यदि वह पशुपति हुआ, तो पिफर कहना हीं क्या? अर्थात् एक जानकार पशुओं का मालिक क्या अपने पशुओं की भी उपेक्षा कर सकता है? समय समय में खानापानी देकर वह तो उन्हें सुखी रख्ेागा। इसी प्रकार भत्तफ कहता है कि मैं तो अल्पज्ञ हूँ अत: पशु के समान हूँ, चूँकि आप सर्वज्ञ हैं, और पशुपति मेरे मालिक भी है। अत: इस गहन संसार में सर्वथा मेरी रक्षा करेंगे हीं, मेरी उपेक्षा तो आप कभी नहीं कर सकते हैं, इत्यादि।
घटो वा मृत्पिण्डोप्यणुरपि च ध्ूमोग्निरचल:
पटो वा तन्तुर्वा परिहरति क घोरशमनम्।
वृथा कण्ठोभं वहसि तरसा तर्कवचसा
पदाम्भोज शंभोर्भज परमसौख्य व्रज सुध्ी:।।6।।
हे विद्वान! आप न्यायशास्त्रा के घट, पट, कपाल, तन्तु, ध्ूम, अग्नि व पर्वत इत्यादि पदाथो को ही निरन्तर क्यों रट रहे हो? क्या इन पदाथो के रटने से अन्तिम समय में भयानक उस यमराज का परिहार हो जायेगा क्या? कदापि नहीं व्यर्थ के परिश्रम से क्या कोई सांसारिक ताप शान्त हो सकता है। तस्मात् इस घटपटादि के व्यर्थ जजाल को छोड़कर भगवान् शर के चरणकमलों का भजन करो, जिसके द्वारा परमसौख्य की प्राप्ति हो सकती है।
कहने का तात्पर्य यह है कि नैयायिक लोग ;न्यायशास्त्रा के अध्येताद्ध अपना सारा जीवन न्यायशास्त्रा के महत्त्वपूर्ण तत्त्वों को, घटपटादि दृष्टान्तों को सामने रखकर कार्य कारण भाव दिखलाया करते हैं, जैसे–समवायेन काय प्रति तादात्म्येन द्रव्यं कारणम्, जैसे– घट व कपाल में परस्पर कार्यकारण भाव समवायसम्बन्धवच्छित्रा घटत्वावच्छिा, या कारणता सा किद् ध्र्मावच्छिा कपालनिश, इत्यादि प्रकार से घट व कपाल के पट व तन्तु के कार्यकारण भाव को सि( करने में, तथा पर्वतों वगिमान् ध्ूमात् इत्यादि अनुमान वाक्यों में पक्ष साय व हेतु के विचार में ही अपना सारा जीवन बिता देते हैं, ऐसे शुष्क नैयायिकों को लक्ष्य करके शम्भुभत्तफ कह रहा है, कि हे विद्वान् क्या ‘घटोनित्य: कृतकत्वात् पटवत्’ इत्यादि घटपटादि विषयक अनुमान वाक्यों को जोर जोर से रटकर ही अपनी जिन्दगी बिता दोगे क्या? जिससे अन्त में कुछ भी सारवस्तु तुम्हारे हाथ में नहीं आनी, भला शर जी के चरणकमलों का भजन कर लो, जिससे इस त्रिाविध् ताप से तो मुत्तफ हो जाते हो, तथा परमपुरूषार्थ को प्राप्त करते।
मनस्ते पदाब्जे निवसतु वच: स्तोत्रापफणितौ
करौ चाभ्यर्चायां श्रुतिरपि कथाकर्णनविधै।
तब याने बुि(र्नयनयुगलं मूखतविभवे
परग्रन्थान्कैर्वा परमशिव जाने परमत:।।7।।
कोई शर भत्तफ स्वयं अपनी दिनचर्या बतलाते हुए कह रहा है, कि हे शम्भो! मेरा मन हमेशा, आपके चरणकमलों में रहता है, मेरी वाणी आपकी स्तुतिगान करती है, मेरे हाथ आपकी पूजा में ही व्यस्त रहते हैं, और मेरे कान आपकी कथा का पान करते हैं, मेरी बुि( आपके यान में मस्त रहती है, और ये नयनयुगल आपके स्वरूप के सौन्दर्य को निहारते हैं, बस अब कोई ऐसी इन्द्रिय बाकी नहीं कि जिससे मैं किसी अन्य ग्रन्थों को पढ़ सकूँ। कहने का अभिप्राय यह है कि मेरी सारी इन्द्रियाँ तो आपकी तत्तत् सेवा में संसत्तफ है, अब हमें पफुरसत ही कहाँ है बाह्यविषयों के ग्रन्थों के अययन की।
यथा बुि(: शुत्तफौ रजतमिति काचाश्मनि मणि
र्जले पैष्टे क्षीरं भवति मृगतृष्णासु सलिलम्।
तथा देवभ्रान्त्या भजति भवदन्यं जडजनो
महादेवेशं त्वां मनसि च न मत्वा पशुपते।।8।।
जिस प्रकार भ्रन्तिवश शुत्तिफ में रजत का ज्ञान होता है, काच में मणि का ज्ञान, पिष्ट युत्तफ जल में, पावडर युत्तफ जल में, दुग्ध् का ज्ञान होता है, और मृगतृष्णा में, जल बुि( होती है, उसी प्रकार हे पशुपते! यह मन्दगति जन मन में, महादेव आपको न मानकर, भ्रान्तिवश किसी अन्य देव को महादेव समझकर भजन करता है।
गभीरे कासारे विशति विजने घोरविपिने
विशाले शैले च भ्रमति कुसुमाथ जडमति:।
समप्यैर्कं चेत:सरसिजमुमानाथ भवते
सुखेनावस्थातुं जन इह न जानाति किमहो।।9।।
हे उमानाथ! इस संसार में मन्दगति, पुष्प के लिए कभी तो गम्भीर तालाब में प्रवेश करता है, तो कभी निर्जन व घनघोर जंगल में भ्रमण करता है। बडे़ आश्चर्य की बात है कि लोग केवल एक अपने हृदयरूपी कमल को आपको समर्पण कर, इस संसार में सुख से रहना नहीं जानते हैं।
नरत्वं देवत्वं नगवनमृगत्वं मशकता
पशुत्वं कीटत्वं भवतु विहगत्वादिजननम्।
सदा त्वत्पादाब्जस्मरणपरमानन्दलहरी
विहारासक्तं चे(ृदयमिह क तेन वपुषा।।10।।
हे शम्भो! इस संसार में यदि हमारा हृदय, हमेशा आपके चरणकमलों के स्मरणरूपपरमानन्दलहरी के विहार में आसत्तफ है, तो पिफर हमारा जन्म भले ही देव योनि, नर योनि, पर्वतीयवन मृग की योनि में, अथवा पशु, कीट मशक, पक्षी आदि योनियों में ही क्यों न हो, इससे हमारा कुछ नहीं बिगड़ता, अर्थात् चाहे किसी भी शरीर में रहें, यदि आपके चरणारविन्दमकरन्द का पान होता हो, तो पिफर कोई बड़ी हानि नहीं है।
बटुर्वा गेही वा यतिरपि जटी वा तदितरो
नरो वा य: कश्चिद्भवतु भव क तेन भवति।
यदीयं हृत्पद्मं यदि भवदध्ीनं पशुपते
तदीयस्त्वं शंभो भवसि भवभारं च वहसि।।11।।
हे शर! इस संसार में मनुष्य चाहे किसी वर्ण या आश्रम में हो, वह ब्रचारी हो, गृहस्थी हो, संन्यासी हो, चाहे जटाधरी हो, अथवा इनसे अतिरित्तफ कोई भी हो, इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। हे पशुपते! असली बात तो यह है, कि जिसका हृदयकमल आपके अध्ीन हो जाता है, निश्चित आप उसके हो जाते हैं। हे शम्भो! इसीलिए आप, उसके जीवन यात्राा के सारे भार या जिम्मेदारी को भी सम्हाल लेते हो।
गुहायां गेहे वा बहिरपि वने वािशिखरे
जले वा वौ वा वसतु वसते: क वद पफलम्।
सदा यस्यैवान्त:करणमपि शंभो तव पदे
स्थितं चेद्योगोसौ स च परमयोगी स च सुखी।।12।।
हे शम्भो! इस संसार में मनुष्य चाहे गुहा में रहे, या घर में, बाहर, अथवा वन में, या पर्वतशिखर में, जल में अग्नि समीप, चाहे कहीं भी रहे, किसी स्थान विशेष में रहने का थोड़ी कोई महत्त्व है, महत्त्व की बात तो यह है, कि जिसका अन्त:करण भी सर्वदा आपके चरणकमलों में लगा रहता है, वस्तुत: वही यानी, परमयोगी और सबसे अध्कि सुखी है।
असारे संसारे निजभजनदूरे जडध्यिा
भ्रमन्तं मामन्ध्ं परमकृपया पातुमुचितम्।
मदन्य: को दीनस्तव कृपणरक्षातिनिपुण
स्त्वदन्य: को वा में त्रिाजगति शरण्य: पशुपते।।13।।
हे पशुपते! अपनी मन्दमति के कारण, असार इस संसार में, मैं आपका भजन नहीं कर सका, अतएव अन्धें की तरह भटकता ही रहा, ऐसी दशा में कृपा पूर्वक मेरी रक्षा करना उचित हीं है, क्योंकि आपके भत्तफों में मेरे से बढ़कर दीन कोई नहीं है, और तीनों लोकों में दीनों की रक्षा में तत्पर आपके समान शरण देने वाला भी कोई नहीं है।
प्रभुस्त्वं दीनानां खलु परमबन्ध्ु: पशुपते
प्रमुख्योहं तेषामपि किमुत बन्ध्ुत्वमनयो:।
त्वयैव क्षन्तव्या: शिव मदपराधश्च सकला:
प्रयत्नात्कर्तव्यं मदवनमियं बन्ध्ुसरणि:।।14।।
हे पशुपते! आप प्रभु, सबके स्वामी होते हुए भी, विशेषकर दीनों के परमबन्ध्ु हो, और उन दीनों में मेरा स्थान सबसे पहले है, अर्थात् मैं तो प्रथम श्रेणी का दीन हूँ, तब आपकी और मेरी बन्ध्ुता में ;दोस्ती मेंद्ध सन्देह हीं क्या है, इसलिए हे शिव! आप मेरे जाने अनजाने सारे अपराधें को क्षमा करें, इतना हीं नहीं, बड़ी सावधनी से मेरी रक्षा भी करें, संसार में बन्ध्ुओं का यही आदर्श व्यवहार भी है।
उपेक्षा नो चेत्क न हरसि भ(ानविमुखां
दुराशाभूयिशं विध्लििपिमशत्तफो यदि भवान्।
शिरस्तद्वैधत्रां न न खलु सुवृत्तं पशुपते
कथं वा निर्यत्नं करनखमुखेनैव लुलितम्।।15।।
हे पशुपते! यदि मेरे विषय में आपकी उपेक्षा नहीं है, तो पिफर आप अपने यान से विमुख निराशाप्रधन, उस ब्रा की लिखी हुई ललाक्षर पंत्तिफ को लुप्त क्यों नहीं कर देते अर्थात् यदि मेरे भाग्य में ब्रा ने ईश्वर भजन शून्य कोई पदावली अति की है, तो आप में तो इतना सामथ्र्य है, कि आप इस प्रकार विधता से निखमत ललाक्षर पदावली को बदल सकते हैं, जब आप स्वयं अपने करकमलों के नखाग्रभाग से ही अनायास उस विधता के शिर का तक निर्माण कर सकते हैं, तब उसके द्वारा रचित पदपंत्तिफ को बदलने में कौन सा प्रयास है।
विरिदिर्ीर्घायुर्भवतु भवता तत्परशिर
श्चतुष्कं संरक्ष्यं स खलु भुवि दैन्यं लिखितवान्।
विचार: को वा मां विशदकृपया पाति शिव ते
कटाक्षव्यापार: स्वयमपि च दीनावनपर:।।16।।
हे शम्भो! आप ब्रा जी के चारों शिरों की रक्षा खूब सावधनी से करें, क्योंकि वे संसार में सभी जनों के शिरों ;ललाटोंद्ध में दीनता का उल्लेख करते हैं, एक तरह से भत्तफ यहाँ भगवान् को मीठा उपालम्भ ;उलाहनाद्ध दे रहा है, कि जो विधता दुनिया के शिरों को दुर्भाग्यग्रस्त कर देता है, आप उसके शिरों की रक्षा बड़ी तत्परता से कर रहे हैं, क्या यह उचित है, भगवन्! ऐसी स्थिति में आपकी निर्मल दया ही मुझे बचा सकती है, अथवा मुझे चिन्ता करने की भी कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि दीनों की रक्षा करना आपके कटाक्षों का स्वभाव है।
पफलाद्वा पुण्यानां मयि करुणया वा त्वयि विभो
प्रसेपि स्वामिन् भवदमलपादाब्जयुगलम्।
कथं पश्येयं मां स्थगयति नम: संभ्रमजुषां
निलिम्पिानां श्रेणिखनजकनकमाणिक्यमुकुटै:।।17।।
हे भगवान्! किन्हीं पूर्वोपाखजत पुण्यों के द्वारा, अथवा आपकी ही परमकृपा से, आपके प्रस हो जाने पर भी, मैं आपके निर्मल चरणकमलों का दर्शन कैसे करूँ? क्योंकि आकाश से बडे़ वेग से या निरन्तर भीड़ लगाये हुए देवताओं की पंत्तिफ, अपने सुवर्ण व माणिक्य रचित मुकुटों से मेरी दृष्टि को ढक देती है। तात्पर्य यह है कि जब जब भी मैं आपके चरणकमलों का दर्शन करना चाहता हूँ, तब तब अर्थात् हमेशा, मैं देवताओं के मणिक्यमुकुटों से आपके चरणकमलों को घिरा हुआ हीं पाता हूँ। अत: स्वच्छन्दतापूर्वक आपके चरणकमलों का दर्शन मैं नहीं कर पाता हूँ।
त्वमेको लोकानां परमपफलदो दिव्यपदवीं
वहन्तस्तवन्मूलां पुनरपि भजन्ते हरिमुखा:।
कियद्वा दाछिण्यं तब शिव मदाशा च कियती
कदा वा मक्षां वहसि करुणापूरितदृशा।।18।।
हे शिव! लोगों के लिए एकमात्रा आप ही परमपफल देने वाले हो, क्योंकि आपकी ही दिव्य पदवी ;दैवी उपाध्ीद्ध को धरण करने वाले हरि ब्रादि भी आपका ही भजन करते हैं।
हे शम्भो! आपकी उदारता का वर्णन हम कहाँ तक करें, और अपनी तुच्छ इन आशाओं के विषय मे भी क्या कहें, सिपफर् इतना ही कहना है, कि आप कब हमें अपनी करुणापूर्ण दृष्टि से देखेंगे।
दुराशाभूयिश्े दुरध्पिगृहद्वारघटके
दुरन्ते संसारे दुरितनिलये दु:खजनके।
मदायास क न व्यपनयसि कस्योपकृतये
वदेयं प्रीतिश्चेत्तव शिव कृपार्था: खलु वयम्।।19।।
हे शम्भो! दुराशा–कुत्सित–वासनाओं से परिपूर्ण एक क्रूर स्वामी के घर के द्वार के समान, जिसमें सिवाय दु:ख के और कुछ भी हासिल न हो सके, ऐसे पाप के भण्डार के समान दु:खजनक इस संसार में, कहिए आपकी यह प्रसता किस काम की? जो कि मेेरे सन्ताप को भी दूर नहीं कर सकती है, हे स्वामिन्! यह सब जानते हुए भी, आप क्यों इस सन्ताप को दूर नहीं करते, यदि यह त्रिविध् सन्ताप दूर हो जाए तब तो हम सब कृतार्थ हो जाऐं।
सदा मोहाटव्यां चरति युवतीनां कुचगिरौ
नटत्याशाशाखास्वटति झटिति स्वैरमभित:।
कपालिन् भिक्षो मे हृदयकपिमत्यन्तचपलं
दृढं भक्त्या बद्वा शिव भवदध्ीनं कुरु विभो।।20।।
हे शिव! मेरा यह हृदयरूपि कपि ;बन्दरद्ध हमेशा मोह रूपी जंगलों में स चरण करता है, और युवतियों के कुचरूपी पर्वतों में नाचता है, तथा अनेक प्रकार की आशारूपी शाखाओं के चारों ओर जल्दी–जल्दी स्वच्छन्दतापूर्वक घूमता है, हे विभो! हे कपालिन्, आप मेरे इस अत्यन्त च ल हृदयरूपि कपि को भत्तिफ रूपी रस्सी से अच्छी तरह बाँध्कर अपने अध्ीन कीजिए।
घृतिस्तम्भाधारां दृढगुणनिब(ां सगमनां
विचित्राां पाढां प्रतिदिवसन्मार्गघटिताम्।
स्मरारे मच्ेत: स्पफुटपटकुटीं प्राप्य विशदां
जय स्वामिन् शक्त्या सह शिवगणै: सेवित विभो।।21।।
हे स्मरारे! हे स्वामिन्! ध्ैर्यरूपि स्तम्भों के आधर वाली, मजबूत सत्वादि गुण रूपी रस्सियों से बांध्ी गई, चलती, विचित्रा कमलों से सुशोभित, निरन्तर सन्मार्ग की ओर अग्रसर होने से अत्यन्त स्वच्छ, मेरे इस चित्तरूपी पटकुटीर ;छावनीद्ध को प्राप्त कर, आप अपनी शत्तिफ व गणों के साथ होकर इसको जीतें।
प्रलोभाद्यैरर्थाहरणपरतन्त्राो ध्निगृहे
प्रवेशोद्युक्त: सन् भ्रमति बहुध तस्करपते।
इमं चेतश्चोरं कथमिह सहे शरविभो
तवाध्ीनं कृत्वा मयि निरपराध्े कुरु कृपाम्।।22।।
हे चोरें के अनुशाशक शम्भो! मेरा यह चित्तरूपी चोर, अनेक प्रलोभनों से या दुर्वासनाओं से ध्न की चोरी करने के लिए ध्निकों के घरों में प्रवेश पाने के लिए इध्र उध्र बहुत चकर काटता हीं रहता है, जब मैं इसको चोरी करने के मामले में सापफ देख रहा हूूँ, तो पिफर कैसे सहन कर सकता हूँ। अत: मैं इस चित्तरूपी चोर को आपके हवाले कर देना चाहता हूँ, क्योंकि आप तस्करपति –चोरों के अनुशासक अर्थात् नगर कुतूवाल हैं, अत: आप इस चोर को अपने अध्ीन कीजिए, तभी मैं सुखी हो सकता हूँ, मेरा इसके चोरी के साथ कोई संबंध् नहीं है, अत: मैं निरपराध् हूँ, इसलिए मेरे ऊपर कृपा कीजिए। वेद में भगवान् शर को ‘तस्कारणां पतेये’ भी कहा गया है, अर्थात् भगवान् चोरों के सरदार भी हैं, तब कोई भत्तफ भगवान् से कह रहा है कि हे भगवन् यदि यह चित्त रूपी चोर आपके गिरोह का कोई व्यत्तिफ होय, तो आप शीघ्र इसे अपने गिरोह के अन्दर कर लीजिए, अन्यथा बाहरी व्यत्तिफयों की नजर में यह आयेगा तो पिफर आपके गिरोह का भेद खुल जायेगा, और इसके साथ लेन देन का मेरा अपना कोई भी ताल्लुक नहीं है, इसलिए मैं निरपराध् हूँ, वस्तुत: विषयप्रदेश में चित्त के स चरण करने से, वासनाजन्य मालिन्य चित्त में ही रहता है, उसका आत्मा या जीवात्मा से कोई संबंध् नहीं है, अत: जीवात्मा का कथन है, कि मैं तो आपका ही अंश हूँ, मेरा इस चित्त के व्यापारों से कोई मतलब नहीं है, अत: निपराध् शु(–बु( स्वच्छ स्वभाव वाले मुझको तो आपके साथ ही एक होना है, इसी प्रकार की कृपा को भी मैं चाहता हूँ।
करोमि त्वत्पूजां सपदि सुखदो मे भव विभो
विध्त्विं विष्णुत्वं दिशसि खलु तस्या: पफलमिति।
पुनश्च त्वां ुं दिवि भुवि वहन् पक्षिमृगता
मदृ्वा तत्खेदं कथमिव सहे शर विभो।।23।।
हे विभो! मैं निरन्तर आपकी पूजा करता हूँ, आप मुझे सुख प्रदान करें। आपकी पूजा का पफल साधरण नहीं होता है, वह तो कभी ब्रा व विष्णु तक के पदों की प्राप्ति करा देता है। हे प्रभो! आपके दर्शन के लिए मैं तो स्वर्ग व मत्र्यलोक में पक्षि व मृगादि के रूप में विचरण करता हीं हूँ। यह सब कुछ होते हुए भी, पिफर भी जब आपका दर्शन नहीं मिलता है, तो पिफर इस दु:ख को मैं कैसे सहन कर सकता हूँ।
कदा वा कैलासे कनकमणिसौध्े सह गणै
र्वसन् शंभोरग्रे स्पफुटघटितमूर्धलिपुट:।
विभो साम्ब स्वामिन् परमशिव पाहीति निगद
न्वधतृणां कल्पान् क्षणमिव विनेष्यामिसुखत:।।24।।
हे शम्भो! सुर्वण व मणिमय भवनों से युत्तफ कैलास में भगवान् शर के सामने उनके गुणों के साथ रहता हुआ, मस्तक नमनपूर्वक नमस्कारा लि समर्पण करता हुआ, और हे विभो! हे साम्ब! हे स्वामिन्! हे परमशिव! मेरी रक्षा करो। इस प्रकार के शब्दों का उच्चारण करता हुआ, विधता ब्रा के कल्पों को एक क्षण के समान सुखपूर्वक कब बिता दूँ, अर्थात् ऐसा पुण्यमय समय कब आएगा?
स्तवैर्ब्रादीनां जयजयवचोभिखनयामिनां
गणानां केलीभिर्मदकलमहोक्षस्य ककुदि।
स्थितं नीलग्रीवं त्रिानयनमुमाश्लिवपुषं
कदा त्वां पश्येयं करघृतमृगं खण्परशुम्।।25।।
हे प्रभो! ब्रादिकों के जय जय वनि युत्तफ स्तुतियों से युत्तफ, तथा संयमी गणों के क्रीडाओं से समन्वित, मदमस्त सुन्दर बैल के पीठ में विराजमान, नीलग्रीव, त्रिानयन, उभा से संयुत्तफ, हाथ में मृग व खण्डपरशु को धरण किए हुए आपको, मैं कब देखूँ? अर्थात् ऐसा सौभाग्यमय अवसर कब आयेगा? जबकि मैं पूर्वोत्तफ आकार प्रकारों से संयुत्तफ आपको देख सकूँ?
कदा वा त्वां दृष्टवा गिरिश तव भव्या्घ्रियुगलं
गृहीत्वा हस्ताभ्यां शिरसि नयने वक्षसि वहन्।
समाश्लिष्याघ्राय स्पफुटजलजगन्धन् परिमला
नलाभ्यां ब्राद्यैमुर्दमनुभविष्यामि हृदय।।26।।
हे गिरीश! आपको देखकर आपके भव्य चरणयुगलों को हाथों से ग्रहण कर, शिर में, नेत्रों में, व हृदय में, धरण कर, उन चरणों का आलिन कर खिले हुए कमलों के गन्ध् युत्तफ पराग वाले उन चरणों को सूँघकर, ब्रादि देवताओं के लिए दुर्लभ प्रसता को अपने हृदय में कब प्राप्त करूँगा।
करस्थे हेमाौ गिरिश निकटस्थे ध्नपतौ
गृहस्थे स्वभूर्जामरसुरभिचिन्तामणिगणे।
शिरस्थे शीतांशै चरणयुगलस्थेखिलशुभे
कमथ दास्येहं भवतु भवदथ मम मन:।।27।।
हे गिरिश! जब आपके हाथ में ही सुमेरू पर्वत है, और समीप में ही ध्नपति कुबेर हंै, घर में ही स्वर्गापगा–गाजी हैं, और कामध्ेनु व चिन्तामणि आदि आपके समीप में ही सुलभ है, चन्द्रमा शिर में ही जब विराजमान हैं, सभी प्रकार के सौख्यों को प्रदान करने वाले जब आपके चरणयुगल हैं ही तो पिफर कौन सी ऐसी उत्कृष्ट वस्तु बची है, जिनको कि मैं आपको दे सकूँ। मेरे पास तो एक अपना मन है, अब उसी को मैं आपको समर्पण करता हूँ।
सारूप्यं तव पूजने शिव महोदवेति संकीर्तने
सामीप्यं शिवभत्तिफध्ुर्यजनतासांगत्यसंभाषणे।
सालोक्यं च चराचरात्मतनुयाने भवानीपते
सायुज्यं मम सि(मत्रा भवति स्वामिन्कृतार्थोम्यहम्।।28।।
हे शिव! हे भवानीपते! इसी लोक में आपके पूजन से मेरा ‘सारूप्य‘ ;समानरूपताद्ध सि( हो जाता है, क्योंकि यह नियम है ‘देवो भूत्वा देवान् यजेत्’ स्वयं देवता जैसा बनकर ही देवता की पूजा करें, अत: जब मैं आपका पूजन करता हूँ तो पिफर मैं भी आपके समान रूप वाला होता हूँ, इस केवल आपकी पूजा मात्रा से मैं आपका सारूप्य प्राप्त कर लेता हूँ और हे शिव! हे महादेव! इस प्रकार के शब्दों के संकीर्तन से मेरा आपके साथ सामीप्य भी सि( हो जाता है, क्योंकि संकीर्तन भी तभी हो सकता है जबकि कोई देवता की मूखत समीप में हो, अत: संकीर्तन में मुझे आपका सामीप्य सुलभ हो जाता है, तथा शिवभत्तिफ में अग्रणी जनता की संगति तथा सम्भाषण से मुझे सालोक्य भी सुलभ है क्योंकि जिस समय में शिवभत्तफों की संगति से आपका सालोक्य भी मेरे लिए सहज में मिल जाता है। हे भवानिपते! आपका यह जो चित् अचित् स्वरूपवाला अर्थात् स्थावरजात्मक चराचर रूप वाला यह जो विराट् स्वरूप है, इसकि निरन्तर यान से मुझे ‘सायुज्य’ भी अनायास ही प्राप्त हो जाता है, अर्थात् जब मैं आपके विराट् स्वरूप का यान करता हूँ, तो मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मैं आपके ही इस लीला विग्रह रूप विराट् स्वरूप में लीन हूँ, अर्थात् पिफर मेरी अलग से कोई स्थिति नहीं है, अत: केवल आपके यानमात्रा से ही मुझे परमपुरुषार्थ रूप ‘सायुज्य’ भी प्राप्त हो जाता है। हे स्वामिन्! इस प्रकार मैं अपने को कृतार्थ समझता हूँ।
वैष्णवों के वेदान्त ग्रन्थों में भी यही बतलाया गया है, कि ईश्वरानुग्रह से भत्तफ को मोक्ष प्राप्त होता है, जिसका स्वरूप है उस आनन्दात्मक दिव्य लोक का भोग, यही परममोक्ष माना जाता है यह भी चार प्रकार का होता है, सारूप्य, सामीप्य, सालोक्य और सायुज्य। संक्षेप में इनका अर्थ इस प्रकार है–
1.भगवद्रूपता प्राप्ति:– सारूप्यम् अर्थात् पूजा आदि द्वारा परमाभत्तिफ से तद्रूपता होना।
2.भगवद् समीपे स्थिति:– सामीप्यम्, अर्थात् कीर्तन भजनादि से प्राप्त अनुग्रह से उनके समीप में रहना।
3.भगवल्लोके निवास:– सालोक्यम्, अर्थात् सन्त समागम द्वारा प्राप्त अनुग्रह से उनके लोक में निवास करना।
4.भगवद् विग्रह के विलय:– सायुज्यम, अर्थात् निरन्तर भगवद् यान से प्राप्त परमभत्तिफ के द्वारा भगवान् के स्वरूप में ही लीन होना।
यह ‘सायुज्य’ ही परमपुरुषार्थ माना जाता है, जहाँ भत्तफ को समग्र दिव्य आनन्दों का अनुभव होता है।
त्वत्पादाम्बुजमर्चयामि परमं त्वां चिन्तयाम्यन्वहं
त्वामीशं शरणं व्रजामि वचसा त्वामेव याचे विभो।
वीक्षां मे दिश चाक्षुषीं सकरुणां दिव्येशिचरं प्राखथतां
शंभो लोकगुरो मदीयमनस: सौख्योपदेशं कुरु।।29।।
हे शम्भो! मैं हमेशा आपके चरणकमलों का पूजन करता हूँ, और प्रतिदिन परात्पर स्वरूप आपका ही यान करता हूँ। संसार के स्वामी, आपकी ही शरण में जाता हूँ। हे विभो! वाणी से भी केवल आपसे हीं याचना करता हूँ। हे शम्भो! देवता लोग भी जिसके लिए हमेशा ललायित रहते हैं, ऐसी करुणापूर्ण, आपकी दिव्य दृष्टि प्रदान करें। हे लोकगुरो! मेरे मन के लिए परमसुखप्रद उपदेश कीजिए।
वस्तो(ूतविधै सहकरता पुष्पार्चने विष्णुता
गन्ध्े गन्ध्वहात्मतापचने बखहमुर्खायक्षता।
पात्रो कानगर्भतास्ति मयि चेद्वालेन्दुचूडामणे
शुश्रूषां करवाणि ते पशुपते स्वामलिोकीगुरो।।30।।
हे चन्द्रशेखर! मेरे विषय में यदि आप वस्त्राच्छादन में सूर्य के समान, पुष्पार्चन में विष्णु के समान, गन्ध् में वायु के समान, अ को पचाने में अग्नि के समान, पात्रा में सुवर्णमय पात्राों के समान हैं, तो पिफर हे पशुपते! हे स्वामिन्! हे त्रिालोकभुरो! मैं आपकी सेवा करता हूँ। अर्थात् जैसे तत्तत् पदाथो के प्रदान या विद्यमानता में, तत्तत् देवताओं की प्रसता रहती है, वैसी प्रसता यदि आपकी भी मेरे ऊपर है, पिफर तो कहना ही क्या है, मैं निरन्तर आपकी सेवा करूँगा।
नालं वा परमोपकारकमिदं त्वेकं पशूनां पते
पश्यन्कुक्षिगतांश्चराचरगणान् बाह्यस्थितान्रक्षितुम्।
सर्वामत्र्यपलायनौषध्मतिज्वालाकरं भीकरं
निक्षिप्तं गरलं गले न गिलितं नोद्गीर्णमेव त्वया।।31।।
हे पशुपते! समुद्र मन्थन से जब पहली बार गरल–विष निकला, तो इसे आपने संसार के लिए अत्यन्त हितकर नहीं समझा, अत: कुक्षिस्थ चराचर जगत्, तथा बाह्य जगत् की, रक्षा के लिए तथा देवताओं के लिए अहितकर ज्वाला स्वरूप अर्थात् संसार को भी भस्म कर देने वाले अति भयानक इस गरल को अपने गले में रख लिया, न तो अभी तक आपने उसे निगला और न ही उद्वसन ही किया।
ज्वालोग्र: सकलामरातिभयद: क्ष्वेल: कथं वा त्वया
दृष्ट: क च करे ध्ृत: करतले क पक्वजम्बूपफलम्।
जिायां निहितश्च सि(घुटिका वा कण्ठदेशे भृत:
क ते नीलमणिखवभूषणमयं शंभो महात्मन्वद।।32।।
हे शम्भो! हे महात्मन्! यह तो बतलाइए, कि ज्वाला की तरह तीक्ष्ण और सभी देवताओं को भयभीत कराने वाले समुद्रमन्थन से, सर्वप्रथम निकले हुए उस गरल को, आपने किस तरह देखा? क्या पहिले हाथ से उठा लिया, पिफर हथेली में रखकर उसको पके हुए जामुन के पफल के समान आपने समझा, अथवा सि( गिुटिका ;सि( रसायनद्ध समझकर, आपने उसे जीभ में रख लिया, या नीलमणि का आभूषण समझकर गले में बाँध् लिया?
नालं वा सकृदेव देव भवत: नतिर्वा नुति:
पूजा वा स्मरणं कथाश्रवणमप्यालोकनं मादृशाम्।
स्वामिस्थिरदेवतानुसरणायासेन क लभ्यते
का वा मुत्तिफरित: कुतो भवति चेत्क प्रार्थनीयं तदा।।33।।
हे महादेव! मेरे जैसे लोग तो आपके लिए, एक बार भी सेवा, नमस्कार, स्तुति, पूजा, स्मरण व कथा श्रवण तथा दर्शन भी, अच्छी तरह नहीं करते हैं। हे स्वामिन् पिफर अन्य किसी देवता के सेवा से क्या प्राप्त होगा? यदि आप यह समझते हैं कि इस तरह की सेवा से कौन सी मुत्तिफ होगी, तो पिफर यह बतलाइए कि हमें किस वस्तु की प्रार्थना करनी चाहिए, या किस तरह प्रार्थना करनी चाहिए।
क ब्रूमस्तव साहसं पशुपते कस्यास्ति शंभो भव
(ैय चेदृशमात्मन: स्थितिरियं चान्यै: कथं लभ्यते।
भ्रश्यद्देवगणं त्रासन्मुनिगणं नश्यत्प्रपचं लयं
पश्यर्भिय एक एव विहरत्यानन्दसान्द्रो भवान्।।34।।
हे पशुपते! आपके साहस के विषय में हम क्या कहें? हे शम्भो! आपके समान ध्ैर्यशाली अन्य कौन देवता है। अन्य देवताओं के द्वारा इस प्रकार की आत्मा की निश्चलात्मक स्थिति कैसे प्राप्त हो सकती है? क्योंकि प्रलय काल में जिस समय देवताओं का ध्ैर्य डिग जाता है, ऐसे महा भयंकर प्रलय काल को भी, निर्भयतापूर्वक अकेले देखते हुए, आप आनन्दध्नरूप में स्थित होकर विहरण करते हैं।
योगक्षेमध्ुरंारस्य सकलश्रेय: प्रदोद्योगिनो
दृादृमतोपदेशकृतिनो बाह्यान्तरव्यापिन:।
सर्वस्य दयाकरस्य भवत: क वेदितव्यं मया
शंभो त्वं परमान्तर इति मे चित्ते स्मराम्यन्वहम्।।35।।
हे शम्भो! आप प्राणिमात्रा के योग क्षेम में, अर्थात् अप्राप्य वस्तु की प्राप्ति कराने में, और प्राप्त वस्तु की सुरक्षा कराने में, अथवा संसार यात्रा के निर्वाह में, सर्वथा समर्थ हो, और सम्पूर्ण कल्याणों को प्रदान करने में तत्पर हो, इस लोक तथा परलोक के उपयुत्तफ सि(ान्तों के उपदेश में भी कुशल हो। आप सभी के अन्दर और परलोक के उपयुत्तफ सि(ान्तों के उपदेश में भी कुशल हो। आप सभी के अन्दर और बाहर व्याप्त हैं। ऐसे सर्वज्ञ तथा दया के सागर आपके विषय में, जानने योग्य कोई भी बात बाकी नहीं है। हे शम्भो! मेरा तो बस इतना ही कहना है, कि आप मेरे परम अन्तरंग हैं, अतएव मैं अपने चित्त में हमेशा आपका ही स्मरण करता हूँ।
भत्तफो भत्तिफगुणावृते मुदमृतापूणेर् प्रसे मन:
कुम्भे साम्ब तवा्घ्रिपवयुगं संवित्पफलम्।
सत्त्वं मन्त्रामुदीरयजिशरीरागारशुद वह
न्पुण्याहं प्रकटीकरोमि रुचिरं कल्याणमापादयन्।।36।।
हे अम्बा–पर्वती सहित शिव! आपकी भत्तिफ में निरन्तर दत्तचित मैं भत्तिफरूपी गुण–सूत्रा से वेष्टित, हर्षरूप अमृत से परिपूर्ण स्वच्छ, मनरूपी कलश में आपके चरणरूपी पल्लवों तथा ज्ञानरूपी श्रीपफल को रखकर सत्त्वगुणजन्य स्वच्छता रूपी मन्त्राों का उच्चारण करता हुआ, अपने शरीर रूपी गृह को पवित्रा करता हूँ। इस प्रकार प्रात:काल से लेकर सायं काल तक इन कल्याणकारक तथा शान्तिदायक शुभ परम्पराओं का सम्पादन करता हुआ, सारे दिन की सुन्दर पवित्राता को प्रकट करता हूँ।
कोई भी सनातन धर्मावलम्बी भत्तफ यदि अपने घर में विवाहादि कोई शुभ कार्य करता है, तो उसे भी सर्वप्रथम सर्वारम्भ पूजन अवश्य करना पड़ता है, जिसमें गणेश–पूजन, मातृकापूजन व आम्भदयिक श्रा( के बाद पुण्याहवाचन तथा कलशस्थापनादि अवश्य करना होता है, प्रस्तुत स्तोत्रा में भत्तफ ने भी भगवदर्चन के विषय में कलश स्थापन व पुण्याहवाचन की चर्चा रूपकालार द्वारा प्रस्तुत की है, जिसमें बाह्य सामग्री के अभाव में भत्तफ ने अपने मन को ही सुन्दर कलश बनाया है, भत्तिफ को सूत्रा कलावार, हर्षामृत को गाजल, भगवान् के पवित्रा पादों को पल्लव, तथा भगवद् विषयक ज्ञान को ही श्रीपफल माना है, इस प्रकार की पवित्रा सामग्री से भत्तफ अपनी दिनचर्या को प्रकाशित कर रहा है। यह सब एक प्रकार से कर्मकाण्ड की दृष्टि से पुण्याह वाचन भी हो जाता है, जिसका स्वरुप इस प्रकार है– यजमान अपने शुभ कार्य की सपफलता तथा अपनी समृ(ता के लिए ब्राणों से प्रार्थना करता है कि हे ब्राणों! मेरा आज का यह दिन पवित्रा हो, ऐसा आप मेरे घर में बोले, और मेरा कल्याण हो ऐसा भी बोलें–‘भो ब्राणा:? मम गृहे पुण्याहम् भवन्तो ब्रुवन्तु,’ भो ब्राणा:? मम गृहे कल्याणं भवन्तो ब्रुवन्तु इत्यादि। तब ब्राण आशीर्वाद के रूप में कहते हैं पुण्याहम्, पुण्याहम्, कल्याणम् कल्याणम् कल्याणम् इत्यादि।
आम्नायाम्बुध्मिादरेण सुमन:संघा: समुद्यन्मनो
मन्थानं दृढभत्तिफरज्जुसहितं कृत्वा मयित्वा तत:।
सोमं कल्पतरुं सुपर्वसुरभ चिन्तामणि ध्ीमतां
नित्यानन्दसुधं निरन्तररमासोभाग्यमातन्वते।।37।।
हे शम्भो! सन्तरूपी देवसंघ अपने मन को ही मथनी बनाकर, और दृढ़भत्तिफ को डोरी बनाकर, वैदिक वामयरूपी समुद्र का बडे़ आदर से मन्थन कर, उससे शीतलता प्रदान करने वाले चन्द्रमा को कामध्ेनु को, चिन्तामणि को, तथा बुि(मानों को नित्य आनन्द देने वाली सुध ;शास्त्राार्थ चर्चाद्ध को, तथा निरन्तर सौख्य प्रदान करने वाली लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं।
प्रक्पुण्याचलमार्गदशतसुधमूखत: प्रस: शिव:
सोम: सद्गणसेवितो मृगधर: पूर्णस्तमोमोचक:।
चेत: पुष्करलक्षितो भवति चेदानन्दपाथोनिधि:
प्रागल्भ्येन विजृम्भते सुमनसां वृत्तिस्तदा जायते।।38।।
हे शम्भो! यदि कहीं पूर्व जन्मों के किए हुए पुण्यों के प्रसाद से, अमृत तुल्य मूखत भगवान् शिव के दर्शन हो जायें, और वे प्रस हो जायें, सन्त रूपी सद्गुण सज्जनवृन्दों से सेवित ;या तारागणों से सेवितद्ध मृगध्र परिपूर्ण चन्द्र से उपलक्षित ज्ञानवान् अज्ञानान्ध्कार को दूर कर दे, तब अज्ञान के दूर होते ही हृदय की ग्रन्थियों के गलित होने पर, चित्त खिले हुए कमल के समान स्वच्छ व प्रस हो जाय, तो तभी आनन्दमय समुद्र की लहरें उमड़ सकती हैं, तदन्तर हीं कहीं विद्वानों या योगियों की धरणा ब्राकार हो सकती है।
ध्र्मो मे चतुर्घ्रिक: सुचरित: पापं विनाशं गतं
कामक्रोध्मदादयो विगलिता: काला: सुखाविष्कृता:।
ज्ञाननन्दमहौषधि्: सपुफलिता कैवल्यनाथे सदा
मान्ये मानसपुण्डरीकनगरे राजावतसे स्थिते।।39।।
हे शम्भो! मेरे मानस कमलरूपीनगर में राजचूडामणि के समान मान्य कैवल्य प्रदान करने वाले आपके विराजमान होने पर, चतुष्पाद अर्थात् सत्य दानादि चार चरण वाला, यह ध्र्म भी चरितार्थ हुआ, और सारा पाप नष्ट हुआ, काम क्रोधदि जो चित्त के दोष हैं, वे भी समाप्त हुए, सुख देने वाला समय उपस्थित हुआ, और आनन्दमहौषधि् की लतायें पल्लवित, पुष्पित तथा पफलित हुई।
ध्ीयन्त्रोण वचाघटेन कविताकुल्योपकुल्याक्रमे
रानीतैश्च सदाशिवस्य चरिताम्भोरशिदिव्यामृतै:।
हृत्केदारयुताश्च भत्तिफकलमा: सापफल्यमातन्वते
दुखभक्षान्मम सेवकस्य भगवन्विश्वेश भीति: कुत:।।40।।
हे भगवन्! जब बुि(रूपी घटीयन्त्रा ;रहटद्ध से, वचनरूपी घड़ों से, तथा कवितारूपी छोटी नहरों के द्वारा, उपस्थित भगवान् सदाशिव के चरितरूपी समुद्र से दिव्यामृत रूपी जल के सि न के द्वारा, हृदयरूपी खेत में उगे हुए भत्तिफरूपी धन, सपफल हो गये, अर्थात् अच्छी तरह पक गये, तो पिफर हे विश्वेश! मुझ जैसे सेवक के लिए दुखभक्ष अकाल से भय क्यों होगा, अर्थात् जैसे कोई कृषक अपने धान के खेत को सींचने के लिए मशीन रहट आदि लगाता है, उसमें घड़ों को जोड़ता है, तथा छोटी सी नहर के द्वारा उस पानी को धन के खेत में पहुँचाता है, इस प्रकार वह धन समय में पानी आदि की सुविध को प्राप्त कर, सुन्दर पफसल से पककर, किसान को प्रचुर मात्राा में प्राप्त होता है। अब इस किसान को अकाल का कोई भय नहीं होता है, क्योंकि उत्तफ साध्नों द्वारा उपाखजत धन्य राशि कृषक के घर में विद्यमान है, इसी प्रकार किसी भत्तफ का कहना है कि हे भगवन्! मैंने बुि( विद्या तथा कविता के द्वारा आपके चरित रूपी दिव्यामृत को परिपुष्ट कर लिया है, अब चाहे अकाल, काल या महाकाल भी आये, तो मेरा क्या बिगाड़ सकते हैं, कुछ भी नहीं, क्योंकि मैं तो आपके चरितामृत वर्णन या संकीर्तन रूपी भत्तिफरस से आप्लावित हूँ।
पापोत्पातविमोचनाय रुचिरेश्वर्याय मृत्यंजय
स्तोत्रायाननतिप्रदक्षिणसपर्यालोकनाकर्णने।
चिाचित्तशिरो्घ्रिहस्तनयनश्रोत्रौरहं प्राखथतो
मामाज्ञापय तरिूपय मुहूर्मामेव मा मेवच:।।41।।
हे मृत्यु य! पापों से उत्प उपद्रवों के विनाश के लिए, और सुन्दर ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए, स्तुति यान, नमस्कार, प्रदक्षिणा, पूजा, दर्शन व प्रभु विषयक पवित्रा पदों के आकर्षण के विषय में क्रमश: जिा, चित्त, शिर, चरण, हस्त, नयन व श्रोत्रा ये इन्द्रियाँ मुझसे निवेदन कर रही है, कि हम पूर्वोत्तफ अपना अपना स्तुति, यानादि व्यापार करें, अत: आप इसके लिए मुझे आज्ञा दें, और पहिले मुझे ही अपना रूप दिखलाईए। इस विषय में आप चुप न रहें।
गाम्भीय परिखापदं घनघृति: प्रकार उद्यद्गुण
स्तोमश्चाप्तबलं घनेन्यिचयो द्वाराणि देहे स्थित:।
विद्या वस्तुसमृिरित्यखिलसामग्रीसमेते सदा
दुर्गातिप्रियदेव मामकमनोदुगेर् निवासं कुरु।।42।।
हे भवानी प्रिय शर! विद्या–वस्तु–समृि( आदि सम्पूर्ण सामग्री से परिपूर्ण, मेरे मन रूपी दुर्ग किले में आप निवास करें, क्योंकि इस किले की आन्तरिक समृि( के साथ–साथ बाह्य उपकरण भी विद्यमान हैं, मेरे शरीर में स्थित जो गम्भीरता है, वही इस मनरूपी दुर्ग की खाई है, जिसके भय से कामक्रोधदि शत्राु उस किले में एकाएक आक्रमण नहीं कर सकते हैं, विशाल ध्ैर्य ही इसका प्रकार–परकोटा है, और उदीयमान गण समुदाय हीं इसका विश्वसनीय बल सेना समुदाय है। इसमें स्थित जो इन्द्रिय समुदाय है, वही इसके द्वार है। अत: इस प्रकार से सुरक्षित तथा सुसज्जित, इस मनोदुर्ग में, आप निवास करें, चूँकि आप दुर्गातिप्रिय देव हैं, दुर्ग है अति प्रिय जिनको ऐसे देव महादेव हैं, इसलिए दुर्ग पसन्द करने वाले को मनोदुर्ग में ही रहना उचित है, अथवा दुर्गा भवानी के अतिप्रिय होने से भी, मनो दुर्ग में रहना कोई अनुचित नहीं है।
मा गच्छ त्वमितस्ततो गिरिश भो मय्येव वासं कुरु
स्वामिादिकिरात मामकमन:कान्तारसीमान्तरे।
वर्तन्ते बहुशो मृगा मदजुषो यात्सर्यमोहादय
स्तान्हत्वा मृगयाविनोदरुचितालाभं च संप्राप्स्यसि।।43।।
हे गिरिश! आप इध्र उध्र न जायें, हे स्वामिन्! आप मेरे में ही निवास करें, अर्थात् मेरे अन्त:करण में हमेशा विराजमान रहें। हे आदिकिरात! आप मेरे मन रूप वन की सीमा में ही विचरण करें, क्योंकि इसमें मदमस्त,मात्सर्य–राग, मोहादि बहुत से मृग हैं, उन मृगों का वध् करें, आप किरात हैं, इसीलिए मृगया विनोद की उचित रुचि का लाभ लें।
करलग्नमृग: करीन्भो
ध्नशादूर्लविखण्डनोस्तजन्तु:।
गिरिशो विशदाकृतिश्च चेत:
कुहरे पमुखोस्ति मे कुतो भी:।।44।।
इस आदि किरातरूपी शिव के हाथ में, कभी मात्सर्य रूपी मृग आ जाता है, तो पिफर कभी ये मोहरूपी हस्ती का भी वध् कर देते हैं, कभी–कभी तो क्रोधदि रूप विशाल शाईल को भी ये पछाड़ देते हैं। इस प्रकार मेरा अन्त:करण रूपी वन इन मोहादिमृगों से शून्य हो गया है, विशु( आकृति वाले पचानन ये शिव, जब हमेशा मेरे चित्तरूपी गुहा में निवास करते हैं, तो फिर मुझे भय किससे?।
छन्द:शाखिशिखान्वितैखद्वजवरै: संसेविते शाश्वते,
सौख्यापादिनि खेतभेदिनि सुधसरै: पफलैर्दीपिते।
चेत:पक्षिशिखामणे त्यज वृथासंचारमन्यैरलं
नित्यं शरपादपयुगलीनीडे विहारं कुरु।।45।।
हे चित्तरूपीपक्षिशिरोमणि? तुम इस सांसारिक वन के वृथा सचार को छोड़ो, अन्य किसी वृक्ष की, अथवा जंगल की भी आशा मत करो, तुम तो केवल, वेद वृक्षों के पल्लवों से समन्वित, ब्राणादियों से सेवित शाश्वत–सौख्य–निरतिशय सुखों को देने वाले, त्रिाविधताप को नष्ट करने वाले, तथा अमृत के समान धर्मार्थ काम व मोक्ष रूप फलों से प्रकाशित भगवान् शर के चरणकमलों के घोंसले में नित्य विहार करो।
अकीणेर् नखराजिकान्तिविभवैरुद्यत्सुधवैभवे
राधैतेपि च परागललिते हंसव्रजैराश्रिते।
नित्यं भत्तिफवध्ूगणैश्च रहसिस्वेच्छा विहारं कुरु
स्थित्वा मानसराजहंस गिरिजानाथ्घ्रिसौधन्तरै।।46।।
हे मेरे मनरूपी राजहंस? निर्मल नखों की कान्ति से सम्प, सुन्दर सपफेदी से प्रक्षालित, और पद्मरागमणियों से रमणीय, हंस या परमहंस समुदाय से आश्रित, पार्वतीपति के चरणरूपी महल के अन्दर निवास कर, एकान्त में हमेशा भत्तिफरूपी वध्ुओं के साथ स्वेच्छा विहार करो।
शंभुयानवसन्तसिनि हृदारामेघजीर्णच्छदा:
स्ता भत्तिफलताच्छटा विलसिता: पुण्यप्रवालश्रिता:।
दीप्यन्ते गुणकोरका जपवच: पुष्पाणि सद्वासना
गानानन्दसुधमरन्दलहरी संवित्पफलाभ्युति:।।47।।
हे मेरे मानसराजहंस! तुम भगवान् शर के यानरूपी वसन्त से युत्तफ, इस हृदयरूपी उद्यान में, स्वच्छन्दता पूर्वक विहार करो। देखो, इस उद्यान के जो पापरूपी जीर्ण पत्ते हैं, वे अब गिर चुके हैं, पुण्यरूपी पत्तों से ;नवकिशलयों सेद्ध युत्तफ, यह सुन्दर भत्तिफ लता पफैली हुई है, और यहाँ भगवाम् रूपी जप के शब्दरूपी कलिकायें भी उग चुकी है, और सद्वासनारूपी पुष्प सुशोभित हो रहे हैं, तथा ज्ञान व आनन्द रूपी सुधरस की लहरों वाले संवित्पफल, अर्थात् परम पुरुषार्थरूप मोक्ष पफल भी, ऊपर दिखाई दे रहे हैं, इसलिए इस अभ्युदय तथा नि:श्रेयस की सुन्दर वाटिका में परिभ्रमण करो।
नित्यानन्दरसालयं सुरमुनिस्वान्ताम्बुजाताश्रयं
स्वच्छं सद्द्विजसेवितं कलुषहृत्सद्वासनाविष्कृतम्।
शंभुयानसरोवरं व्रज मनोहंसावतंस स्थिरं
क क्षुाश्रयपल्लवभ्रमणसंजातश्रमं प्राप्स्यसि।।48।।
हे मनरूपी श्रेष्ठहंस! अथवा श्रेष्ठ मानस मराल! तुम तो हमेशा आनन्दरूपी जल से भरे हुए, और देवता व मुनिवृन्द के अन्त:करणरूपी कलियों के एकमात्रा आश्रम, स्वच्छ, सुन्दर शुक पिक कोकिलादि पक्षियों से सेवित, अथवा सत्यानुष्ठान परायण ब्राणों द्वारा सेवित, वहाँ हृदय का कालुष्य ध्ुल जाता है, और सुन्दर वासनाओं या विचारों का उदय होता है, ऐसे शाश्वत शम्भु यान रूपी सरोवर की ओर चलो।
क्या तुम क्षुद्र कीचड युत्तफ तलाबों के परिभ्रमण के परिश्रम को प्राप्त करोगे? अर्थात् भगवान् शर के यान रूप मान सरोवर को छोड़कर क्या सांसारिकविषयरूप कीचड़ से सने हुए किसी छोटी तल्लैया को ढूँढ रहे हो क्या? इस प्रकार का तुम्हारा परिश्रम व्यर्थ है।
आनन्दामृतपूरिता हरपदाम्भोजालवालोद्यता
स्थैपनमुपेत्य भत्तिफलतिका शाखोपशाखान्विता।
उच्ैर्मानसकायमानपटलीमाक्रम्य निष्कल्मषा
नित्याभीपफलप्रदा भवतु में सत्कर्मसंवखध्ता।।49।।
यह शम्भु भत्तिफ लतिका आनन्दरूपी अमृत से परिपूर्ण है, तथा भगवान् शर के चरण कमलरूप आलवाल में उगी है। अतएव यह अत्यन्त स्थिर है, मन तथा शरीर के अहंकार पटल का विध्वंस करने वाली है, और शाखा व प्रशाखाओं में पफैली हुई है, सत्कमो से बढ़ाई गई यह लता निर्दोष तथा पवित्रा है। इस प्रकार की यह शम्भु भत्तिफ लतिका मुझे नित्य अभीष्ट पफलों को प्रदान करें।
संयारम्भविजूम्भितं श्रुतिशिर:स्थानान्तरधिश्तिं
सप्रेमभ्रमराभिराममसकृत्सद्वासनाशोभितम्
भोगीनभरणं समस्तसुमन: पूज्यं गुणाविष्कृतं
सेवे श्रीगिरिमकिाजुर्नमहालि शिवालितिम्।।50।।
;मैंद्ध संयाकाल में विशेष श्रृंगार से सुन्दर, वेद बोध्ति जो पवित्रा स्थान हैं, उसमें अध्शि्ति, प्रेम रूप भ्रमर से सुशोभित, और निरन्तर सद्वासनाओं से अल्कृत सर्पराज वासुकि को धरण किए हुए, समस्त पुष्पों से पूजनीय, सुन्दर गुणों से प्रकट हुए, भवानी से आलिति, भगवान् श्री गिरिमल्लिकाजुर्न नामक महालि की सेवा करता हूँ।
भृंीच्छानटनोत्कट: करिमदग्राही स्पफुरन्माध्वा
ादो नादयुतो महासितवपु: पेषुणा चादृत:
सत्पक्ष: सुमनोवनेषु स पुन: साक्षान्मदीये मनो
राजीवे भ्रमराध्पिो विहरतां श्रीशैलवासी विभु:।।51।।
वही पूर्वोत्तफ गिरिमल्लिकाजुर्न नामक भ्रमरसम्राट रूपी श्रीशैलवासी भगवान् शर, नृत्य करते हुए, एक बार पिफर मेरे हृदय कमल में विहार करें, अन्य विशेषणों द्वारा उसी नृत्यावस्था का प्रदर्शन कर रहे हैं, भत्तफवत्सल ये भगवान्, जब भृी आदि सेवकों की नृत्य देखने की इच्छा होती है, तो तभी नाच लेते हैं, इस प्रकार भृी की इच्छानुसार जो नृत्य–नर्तन उससे उग्र रूप वाले हैं, हाथी के मद को ग्रहण करने वाले, करिमद को इसलिए ग्रहण करना है, चूँकि शर भगवान् का उ(त ताण्डव नृत्य होता है, इस प्रकार के भूतभावन भगवान् के नृत्य से ;माध्वद्ध विष्णु भी प्रस रहते हैं,ढा आदि वाद्यों के नाद से युत्तफ, सारे शरीर में भस्मी रमाये हुए, सज्जनों या सन्तों के पक्ष को धरण करने वाले, देववन में कामदेव के द्वारा सम्मानित, ये भगवान् साक्षात् मेरे हृदय कमल में विहार करें, अर्थात् मैं इनका निरन्तर यान करता रहूँ।
कारुण्यामृतवखषणं ध्नविपद्भीष्मच्छिदाकर्मठं
विद्यास्यपफलोदयाय सुमन: संसेव्यमिच्छाकृतिम्।
नृत्यत्तफमयूमिनिलयं पज्जटामण्डलं
शंभो वाछति नीलकंध्र सदा त्वां मे मनातक:।।52।।
हे शम्भो! हे नीलकन्ध्र! आप करुणा–दया–रूपी अमृत की वर्षा करने वाले हैं, महाविपत्तियों को दूर करने में कुशल हैं, विद्यारूपी वनस्पति सस्य के पफलोदय के लिए सन्तों द्वारा सेवनीय हैं, भत्तफों की इच्छानुसार रूप को धरण करने वाले हैं, नाचते हुए मनरूपी मयूर के लिए आप पर्वत स्वरूप हैं, अर्थात् मयूर जिस प्रकार पर्वत व शाखा का अवलम्बन कर मेघ को देखते ही नाचता है, उसी प्रकार भत्तफ भी आपका अवलम्बन लेकर या आपके नीलकन्ध्र को देखकर प्रसता से नाचता है। इस प्रकार जटामण्डलों से सुशोभित आपको हमेशा मेरा मनरूपी चातक चाहता है।
आकाशेन शिखी समस्तपफणिनां नेत्राा कलापी नता
नुग्राहिप्रणवोपदेशनिनदै: केकीति यो गीयते।
श्यामां शैलसमुवां घनरुच दृष्टा नटन्तं मुदा
वेदान्तोपवने विहाररसिकं तं नीलकण्ठं भजे।।53।।
जिस प्रकार उपवन में स्थित मयूर, पर्वतों से उठने वाली काली घन घटाओं से व्याप्त आकाश को देखकर, हर्ष से ओंकार की तरह निम्नोत वनि के द्वारा शिखावाला, कलाप पंख वाला, होता हुआ भी केकी अर्थात् केका मध्ुर व सान्द्र वनि युत्तफ होकर नाचता रहता है, इसी प्रकार भगवान् शिव भी, वेदान्तरुपी उपवन में शैलसुता सौन्दर्यशिरोमणि श्यामा पार्वती को देखकर नाचते हैं, ऐसे विहाररसिक नीलकण्ठ ;शिवद्ध का मैं यान करता हूँ।
संया ध्र्मदिनात्ययो हरिकराघातप्रभृतानक
वानो वारिदगखजतं दिविषदां दृष्च्छिटा चला।
भत्तफानां परितोषवाष्पविततिवृर्ष्टिर्मयूरी शिवा
यस्मिुज्जवलताण्डवं विजयते तं नीलकण्ठं भजे।।54।।
जिस वर्षाकाल के उज्वलताण्डव का संयाकाल ही ग्रीष्म)तु की अवसान बेला है, अर्थात् वर्षाकाल है, और हरि सूर्य या सेवकगणों के कर किरण या हाथों से बजाये गये नगाडे़ की वनि ही मेघ गर्जन है, देवी देवताओं की दृष्टि ही जहाँ बिजली है, और भत्तफजनों के आनन्दाश्रु ही विशाल वृष्टि है, स्वयं शिवा पार्वती ही जिसमें मयूरी की तरह आनन्दित है। इस प्रकार के वातावरण में, यह उत्कृष्ट ताण्डवनृत्य जिसका है, उसी नीलकण्ठ की मैं आराध्ना करता हूँ।
आद्यायामिततेजसे श्रुतिपदैवेर्द्याय सायाय ते
विद्यानन्दमयात्मने त्रिाजगत: संरक्षणोद्योगिने।
येयायाखिलयोगिभि: सुरगणैगेर्याय मायाविने
सम्यक्ताण्डवसंभ्रमाय जटिने सेयं नति: शंभवे।।55।।
जो भगवान् शर सबसे आदि हैं, और अपरिमित तेज वाले हैं, वैदिक पदों से जिनका ज्ञान होता है, अर्थात् वेद भी जिनका व्याख्यान करते हैं, जो सभी प्राणियों के प्राप्य हैं, या साय हैं, जिनका स्वरूप विद्यानन्दमय है, तीनों लोकों की रक्षा में जो तत्पर है। समस्तयोगिसमुदाय जिनका यान करता है, देवगण जिनका गान करते हैं, जो ताण्डव नृत्य में व्यग्र है, ऐसे जटाधरी शम्भु को मैं प्रणाम करता हूँ।
नित्याय त्रिागुणात्मने पुरजिते कात्यायनीश्रेयसे
सत्यायादिकुटुम्बिने मुनिमन: प्रत्यक्षचिन्मूर्तये
मायासृष्टजगत्रायाय सकलाम्नायान्तसंचारिणे
सायंताण्डवसंभ्रामाय जाटने सेयं नति: शंभवे।।56।।
जो भगवान् शर नित्य हैं, सत्व रज व तमोगुण रूप हैं, जिन्होने त्रिापुर को जीता है, और कात्यायनी माता के परम कल्याण कारक हैं, जो भगवान् मुनियों के मनों में प्रत्यक्ष चिद्रूप हैं, तथा सत्व रज व तमो गुणात्मिका माया से जिन्होंने तीनों लोकों की सृष्टि की है, समस्त वैदिक वामय जिनकी व्याख्या करता है,और हमेशा सायंकाल ताण्डव नृत्य के लिए जो उद्यत रहते हैं, जटाधरी ऐसे भगवान् शम्भु को मेरा प्रणाम है।
नित्यं स्वोदरपूरणाय सकलानुद्दिश्य वित्ताशया
व्यथ पर्यटनं करोमि भवत: सेवां न जाने विभो।
मज्जन्मान्तरपुण्यपाकबलतस्त्वं शव सर्वान्तर
स्तिस्येव हि तेन वा पशुपते ते रक्षणीयोस्म्यहम्।।57।।
हे प्रभो! मैं अपने उदरपूखत के निमित्त व ध्न की लालसा से, सभी ध्निकों के दरवाजे व्यर्थ भ्रमण करता हूँ। परन्तु आपकी सेवा–भजनादि नहीं जानता हूँ। पिफर भी मेरे जन्मान्तर के पुण्यों के परिणाम से, आप सर्वत्रा सभी प्राणियों के अन्त:करण में हो। इसलिए हे पशुपते! मैंसर्वथा आपसे रक्षणीय हूँ। अर्थात् मेरी रक्षा करो।
एको वारिजबान्ध्व: क्षितिनभोव्यप्तं तमोमण्डलं
भित्त्वा लोचनगोचरोपि भवति त्वं कोटिसूर्यप्रभ:।
वेद्य: क न भस्यहो घनतरं कीदृग्भवेन्मत्तम
स्तत्सव व्यपनीय मे पशुपते साक्षात्प्रसो भव।।58।।
हे प्रभो! अकेला सूर्य पृथिवी व आकाश के अन्ध्कार समुदाय का भेदन कर, लोगों के दृि पथ में आता है, आश्चर्य हैै कि, आप तो करोड़ों सूयो की प्रभा के समान हैं, पिफर भी दृष्टिगोचर क्यों नहीं होते हो? हो सकता है, उस पाखथव और क्षितिज अन्ध्कार की अपेक्षा मेरा यह अन्त:करण में स्थित अज्ञानान्ध्कार कहीं बड़ा हो। अत: हे पशुपते! मेरी यही प्रार्थना है, कि इस घने अज्ञानान्ध्कार को दूर कर, आप मेरे लिए प्रस रहें।
हंस: पवनं समिच्छति यथा नीलाम्बुदं चातक:
कोक: कोकनदप्रियं प्रतिदिनं चन्ं चकोरस्तथा।
चेतो वछति मामकं पशुपते चिन्मार्गमृग्यं विभो
गौरीनाथ भवत्वदाब्जयुगलं कैवल्यसौख्यप्रदम्।।59।।
हे विभो! जिस प्रकार हंस कमलवन की इच्छा करता है, चातक नीलमेघों की इच्छा करता है, कोक चकवा सूर्य की इच्छा करता है, चकोर चन्द्र की इच्छा करता है, हे पशुपते! हे गौरीनाथ! उसी प्रकार मेरा मन भी आयात्मिक ज्योति द्वारा ही प्राप्य, मोक्षरूप सौख्य को प्रदान करने वाले आपके चरण कमलों को ही चाहता है।
रोध्स्तोयहृत: श्रमेण पथिकश्छायां तरोवृर्तिो
भीत: स्वस्थगृहं गृहस्थमतिथिर्दीन: प्रभुं धखमकम्।
दीपं संतमसाकुलश्च शिखिनं शीतावृतस्त्वं तथा
चेत: सर्वभयापहं व्रज सुखं शंभो: दाम्भोरुहम्।।60।।
किसी नदी के तट के जल से भयभीत पथि जैसे वारिश से बचने के लिए किसी छायेदार वृक्ष का आश्रय लेता है, और दीन अतिथि जैसे ;सायंकालद्ध किसी गृहस्थ धखमक के घर का आश्रय लेता है, और सायंकाल शीत से पीडित कोई व्यत्तिफ जैसे प्रदीप्त अग्नि के पास जाता है, उसी प्रकार हे मेरे मन! तू भी सभी प्रकार के भयों को दूर करने वाले भगवान् शर के चरणकमलों में बडे़ आराम से चल दे।
ओलं निजबीजसंततिरयस्कान्तोपलं सूचिका
सावी नैजविभुं लता क्षितिरुहं सिन्ध्ु: सरिद्वल्लभम्।
प्राप्नोतीह यथा तथा पशुपते: पदारविन्दद्वयं
चेतोवृत्तिरुपेत्य तिष्ठांत सदा सा भत्तिफरित्युच्यते।।61।।
इस संसार में जिस प्रकार बीज परम्परा ;ओल आदिद्ध वृक्ष को प्राप्त करती है, लौह–सूचिका अयस्कान्त मणि को प्राप्त करती है, सती–सावी स्त्राी अपने पति को प्राप्त करती है, नदी सागर को प्राप्त करती है, उसी प्रकार यदि मेरी चित्तवृत्ति भी, भगवान् शर के चरणारविन्द को हमेशा प्राप्त करती रहे, तो इसी का नाम भत्तिफ है।
आनन्दश्रुभिरातनोति पुलकं नैर्मल्यतश्छादनं
वाचाशमुखे स्थितै जठरापूखत चरित्राामृतै:।
रुाक्षैभंसितेन देव वपुषो रक्षां भवावना
पयके विनिवेश्य भत्तिफजननी भत्तफार्भकं रक्षति।।62।।
भत्तिफ रूपी जननी भत्तफ रूप बालक को, अपने आनन्दाश्रुओं से पुलकित करती है, निर्मलता से उसका आच्छादन करती है, शंखवीणादि वनियुत्तफ मुख में स्थित, भगवच्चरित्रामृतों से भत्तफ बालक की उदर पूखत करती है, भगवान् के शरीर में संलग्न होने से अतएव ध्ूसरित रुद्राक्षों से भत्तफ की रक्षा करती है, इस प्रकार भगवद् भावना रूपी पयक–शया में लिटा कर, भत्तिफ जननी भत्तफ बालक की रक्षा करती है।
मार्गावखततपादुका पशुपतेरस्य कूर्चायते
गण्डूषाम्बुनिषेचनं पुररिपोखदव्याभिषेकायते।
कचिक्षितमांसशेषकवलं नव्योपहारायते
भत्तिफ: क न करोत्यहो वनचरो भत्तफावतंसायते।।63।।
मार्ग से आवखतत पादुका ही जहाँ भगवान् के स्वच्छ करने की कूखचका झाडू है, भत्तफों का कुल्ला करना मात्रा जहाँ अभिषेक समझा जाता है, अपने आहार से बचा हुआ मांस का ग्रास ही जहाँ दिव्य उपहार समझा जाता है, यही आश्चर्य है, कि भत्तिफ से क्या क्या नहीं होता, जहाँ वनचर भी भत्तफ शिरोमणि बन जाता है।
वक्षस्ताडनमन्तकस्य कठिनापस्मारसंमर्दनं
भूभृत्पर्यटनं नमत्सुरशिर:कोटीरसंघर्षणम्।
कमेर्दं मृदुलस्य तावकपदद्वन्द्वस्य क वोचितं
मच्चेतोमणिपादुकाविहरणं शंभो सदाीकुरु।।64।।
हे शम्भो! आपका जो वक्षस्ताद्रन है, वह तो यमराज का भी कठिन अपस्मार रोग को नि:सरण है, और आपका जो पर्वतों में पर्यटन है, वह नमस्कार करते हुए देवताओं के मुकुटों का संघर्षण है, इस तरह इतने कोमल आपके चरणों का इतना कठिन यह कर्म उचित है, क्या? अत: आप हमेशा मेरे चित्तरूपी मणि के द्वारा निखमत पादुका से ही विहरण कीजिए।
वक्षस्ताडनशया विचलितो वैवस्वतो निर्जरा:
कोटीरोज्ज्वलरत्नदीपकलिकानीराजनं कुवते।
दृ्वा मुत्तिफवध्ूस्तनोति निभृताश्लेषं भवानीपते
यच्चेतस्तव पादपभजनं तस्येह क दुर्लभम्।।65।।
हे भवानीपते! वैवस्वत महाराज तो, आपके वक्षस्ताडन से ही विचलित हो गये, देवता लोग अपने मुकुट में रत्न रूपी कलिकाओं से आरती करने लगे। यह सब देखकर मुत्तिफरूपी वध्ू आपका गाढ आलिंगन करने लगी, हे भवानीपते! जिसका चित्त एकमात्रा आपके ही भजनपूजन में संलग्न है, उसके लिए यहाँ पिफर कौन सी चीज दुर्लभ है।
क्रीडाथ सृजतिस प्रपमखिलं क्रीडामृगास्ते जना
यत्कर्माचरितं मया च भवत: प्रीत्यै भवत्येव तत्।
शंभो स्वस्य कुतूहलस्य करणं मच्ेतिं नितिं
तस्मान्मामकरक्षणं पशुपते कर्तव्यमेव त्वया।।66।।
हे शम्भो! आप केवल अपनी क्रीडा के लिए ही इस सम्पूर्ण प्रप की रचना करते हो, इस प्रप में जितने भी प्राणिवर्ग हैं, वह सब आपके क्रीडार्थ मृग के समान हैं, हे भगवान् इस संसार में आकर मैंने यहाँ जो कुछ भी कर्म किया है, वह सब आपके प्रसता के लिए ही होवे। हे पशुपते! मेरी जितनी भी क्रियायें हैं, निश्चित ही वे एक तरह से कौतूहलपूर्ण है, अर्थात् केवल अपने मनोरञजनार्थ है, इसलिए मेरी रक्षा का भार भी सर्वथा आपके हीं ऊपर है।
बहुविध्परितोषवाष्पपूरस्पफुटपुलकातिचारुभोगभूमिम्।
चिरपदपफलका्क्षिसेव्यमानां परमसदाशिवभावनां प्रपद्ये।।67।।
;मैंद्ध अनेक प्रकार के सन्तोषों से समुत्प–आनन्दाश्रुओं के प्रवाह से पुलकित, सुन्दर भोग भूमि है जिसमें, और चिर काल से परमपद व परमपफल के इच्छुकों द्वारा जो सेवित है, ऐसी परमसदाशिव भावना को कब प्राप्त करूँ।
अमितमुदमृतं मुहुदुर्हन्तीं विमलभवत्पदगोष्ठमावसन्तीम्।
सदय पशुपते सुपुण्यपाकां मम परिपालय भत्तिफध्ेनुमेकाम्।।68।।
हे पशुपते! हे दयालो! मेरी अनन्त हर्षरूपी अमृत को प्रदान करने वाली, निर्मल आपके चरण कमल रूपी गोष्ठ में निवास करने वाली, जन्मजन्मान्तरों के पुण्यों के परिणामस्वरूप एक भत्तिफरूपी ध्ेनु की आप रक्षा करें, अर्थात् आप इस प्रकार की मुझे बुि( प्रदान करें, जिससे मैं आपकी अनन्यभत्तिफ से कभी भी विचलित न होऊँ।
जडता पशुता कलतिा कुटिलचरत्वं च नास्ति मयि देव।
अस्ति यदि राजमौले भवदाभरणस्य नास्मि क पात्राम्।।69।।
हे देव! मेरे में जडता–मूर्खता पशुता–पशुत्व–अविशेषज्ञता, कुटिलचरता–कपटपूर्ण व्यवहार ये सब ;दुर्गणद्ध जब नहीं है, तो पिफर मुझे आप क्यों नहीं अपनाते हो। हे राजमौले चन्द्राभरण! चन्शेखर! यदि आप पूर्वोत्तफ दोष मेरे में भी किसी प्रकार समझते हैं, तो पिफर भी मै। आपका आभरण अलार या परिकर नहीं बन जाता क्या? क्योंकि पूर्वोत्तफ जितने भी दोष हैं, वे आपके उपकरण या अरार हैं, जैसे जडता नित्य कैलास वास होने से आप में भी सहज शीतलता है, जो एक सुन्दर गुण है या अलार है, इसी प्रकार पशुता भी–क्योंकि आप पशुओं जीवों के पति–शासक–ज्ञानदाता हैं, अत: अनन्त पशु निष्ठ ध्र्म जो पशुता, वह आप में भी है, क्योंकि पशुपति का ही पशु एक अ है, आयिों में समानध्र्म का रहना स्वाभाविक है, और कुटिलचरता कुटिल टेड़ा–मेड़ा चलने वाला सर्प है, वह आपका आभरण है, यह आभरण भी विशेषण या ध्र्म रूप से आपमें है। अत: कुटिलता भी आप में ध्र्म या आभरण के रूप में है। जब ये सब आपके आभरण बनते ही हैं, तो पिफर उत्तफ विशेषणों से विशिष्ट में भी आपके आभरण का पात्रा क्यों न बनूँ।
अरहसि रहसि स्वतन्त्राबु(ा वरिवसितुं सुलभ: प्रसमूखत:।
अगणितपफलदायक: प्रभुमेर् जगदध्किो हृदि राजशेखरोस्ति।।70।।
जनसमुदाय में, अथवा एकान्त में आराध्ना करने में प्रस मूखत आशुतोष सदाशिव सर्वथा सुलभ है, ऐसे अनन्तपफलों को देने वाले संसार के स्वामी प्रभु चन्द्रशेखर, मेरे हृदय में हमेशा विराजमान हैं।
आरूढभत्तिफगुणकुतिभावचाप
युक्तै: शिवस्मरणबाणगणैरमोघै:।
निखजत्य किल्बिषरिपून्विजयी सुध्ीन्:
सानन्दमावहति सुस्थिरााजलक्ष्मीम्।।71।।
भत्तिफरूपी प्रत्य ा ;ध्नुष की डोरीद्ध को चढ़ाकर, आकुिञ त भावरूप ध्नुष से युत्तफ होकर, अमोघ शिवस्मरण रूप वाणों से, पापरूपी शत्राुओं को जीतकर श्रेष्ठ बुि(मान, आनन्दपूर्वक सुस्थिर राजलक्ष्मी का उपभोग करता है।
यानानेन समवेक्ष्य तम:प्रदेशं
भित्त्वा महाबलिभिरीश्वरनाममन्त्रै:।
दिव्याश्रितं भुजगभूषणमुद्वहन्ति
ये पादपद्ममिह ते शिव ते कृतार्था:।।72।।
हे शिव! इस संसार में जो लोग यानरूपी अ न से दृष्टि को निर्मल कर, अन्ध्कार स्थल को देख लेते हैं, पुन: शत्तिफशाली भगवान् के नाम मन्त्राों से उस अज्ञानान्ध्कार को दूर कर, दिव्यों से सेवित भुजगभूषण वाले, आपके चरण कमलों का आश्रय लेते हैं, वस्तुत: वे ही कृतार्थ हैं।
भुदारतामुदवहद्यदपेक्षया श्रीभूदार एव किमत: सुमते लभस्व।
केदारमाकलितमुत्तिफमहौषध्ीनां पादारविन्दभजनं परमेश्वरस्य।।73।।
हे सुमति! यदि आप भूस्वामिता को अच्छा समझते हैं, तो उससे तो केवल सम्पत्ति और भूस्वामिता ही आपको प्राप्त हो सकती है, इससे आगे कुछ भी नहीं। यदि आप परमेश्वर के चरणाविन्दों का यान भजन आदि करें, तो सुशोभित हैं मुत्तिफरूपी महौषध्यिाँ जिसमें, ऐसे सुन्दर ‘केदार’ क्षेत्रा को अथवा उत्तराखण्ड में स्थित ‘केदार’ नामक ‘धम’ को भी प्राप्त कर सकते हैं।
आशापाशक्लेशदुर्वासनादिभेदोद्युत्तफैखदव्यगन्ध्ैरमन्दै:।
आशाशाटीकस्य पादारविन्दं चेत:पेटीं वासितां मे तनोतु।।74।।
दिशायें हीं जिनका आच्छादन हैं, ऐसे भूतभावन भगवान् के चरणारविन्द, मेरी आशा रूपी पाश में वर्तमान क्लेश कर्म आदि दुर्वासनाओं के दूर करने में तत्पर–समर्थ, पादारविन्द की जो दिव्यगन्ध् है, वह मेरे चित्तरूपी पेटी को सुगन्धि्त करें।
कल्याणिनं सरसचित्रात सवेगं
सवेर्तिज्ञमनघं ध्ु्रवलक्षणाढम्।
चेतस्तुरध्रिुह्य चर स्मरारे
नेत: समस्तजगतां वृषभाध्रिूढ।।75।।
हे स्मरारे! हे समस्तजननायक! हे वृषभवाहन! आप कल्याण कारक अर्थात् अच्छे लक्षणों वाले, सुन्दर व चिचित्रा गति–पदक्रम वाले, वेगपूर्वक चलने वाले, सभी के इशारे को समझने वाले, दृढ़ सि(ान्तों नियमों–व्रतों को मानने वाले, मेरे चित्तरूपी घोडे़ं में चढ़कर, समस्त संसार में विचरण करो।
भत्तिफर्महेशपदपुष्करमावसन्तो
कादम्बिनीव कुरुते परितोषवर्षम्।
संपूरितो भवति यस्य मनस्तटाक
स्तज्जन्मसस्यमखिलं सफलं च नान्यत्।।76।।
भगवान् शर के चरण कमलों का आश्रय लेने वाली भत्तिफ, मेध्माला की तरह सन्तोषामृत की वर्षा करती है, जिस वर्षण से, मन रूपी तड़ाग परिपूर्ण हो जाता है। अत: उस सन्तोषामृत रूपी जल से उत्प हुआ सम्पूर्ण धन्य सपफल होता है, तदतिरित्तफ कोई चीज सपफल नहीं है।
बुि(: स्थिरा भवितुमीश्वरपादप
सत्तफा वध्ूविरहिणीव सदा स्मरन्ती।
सावनास्मरणदर्शनकीर्तनादि
संमोहितेव शिवमन्त्राजपेन विन्ते।।77।।
बुि( स्थिर होने के लिए, ईश्वर के चरणकमलों में आसत्तफ होती है, परन्तु विरहिणी वध्ू की तरह वह जब भगवद् विषयक भावना का स्मरण करती है, और भगवद् मूखत का दर्शन करती है, या कीर्तनादि करती है, तो पिफर वह संमोहित हो जाती है। ऐसी स्थिति में पुन: शिवमन्त्रा के मायम से, भगवान् के विषय में कुछ विचार कर सकती है।
सदुपचारविध्षि्वनुबोध्तिां सविनयां सुहृदं समुपाश्रिताम्।
मम समु(र बुदि(मिमां प्रभो वरगुणेन नवोढवध्ूमिव।।78।।
हे प्रभो! सुन्दर शिष्टाचारादि विध्यिों में सुशिक्षित, विनीत, सुन्दर हृदयरूपी मित्रा का आश्रय हुई, इस मेरी बुि( का, सुन्दर पति के मिलने नवोढा वध्ू का जिस प्रकार उ(ार हो जाता है, उसी प्रकार उ(ार कीजिए।
नित्यं योगिमन:सरोजदलसंचारश्रमस्त्वत्क्रम:
शम्भो तेन कथं कठोरयमराड्वक्ष: कवाटक्षति:।
अत्यन्तं मृदुलं त्वद्घ्रियुगलं हा मे मनश्चिन्तय
त्येतल्लोचनगोचरं कुरु विभो हस्तेन संवाहये।।79।।
हे शम्भो! आपका पाद विक्षेप, अर्थात् चलना पिफरना योगियों के मन रूपी कमल के पत्तों में ही होता है, अर्थात् जब आपके चरण हमेशा योगियों के कोमल मन रूपी कमल पर स रण करते हैं, तो उन चरणों में भी संसर्गजन्य कोमलता ही रहेगी, तब वे चरण कठोर यमराज के वक्षरूपी कपाट को कैसे तोड़ सकंेगे, बडे़ दु:ख के साथ मेरा मन, यही सोचता रहता है, अत: आप मेरे मन की ओर निहारिये, मैं आपके इन कोमल चरणों की तरपफ देखता हूँ, इन्हें अपने हाथ से दबाकर कुछ कठोर बना दूँ।
एष्यत्ये जन मनोस्य कठिनं स्मिटानीति म
क्षायैगिरिसीम्नि कोमलपदन्यास: पुराभ्यासित:।
नो चेद्दिव्यगृहान्तरेषु सुमनस्तल्पेषु वेद्यादिषु
प्राय: सत्सु शिलातलेषु नटनं शंभो किमथ तव।।80।।
हे शम्भो! यह भत्तफ जन, पुन: इस संसार मेें जन्म ग्रहण करेगा, इसका मन अत्यन्त कठिन है, अत: मैं ;अपने चरणों को मजबूत बनाने के लियेद्ध निरन्तर इसके मन में भ्रमण करूँगा, यह सब सोचकर ही, मेरी रक्षा की दृष्टि से ही, आपने पिफर अपने कोमल चरणों से गिरिगुहाओं में घूमने का अभ्यास प्रारम्भ कर दिया है क्या? अन्यथा तो आप किसी एक जगह बैठे रहते, प्राय: दिव्य गुहाओं में कुसुमतल्पों में, चबूतरों में सुन्दर शिलाओं में व्यर्थ नाच क्यों करते।
कंचित्कालमुमामहेश भवत: पदारविन्दार्चनै:
कंचि(ानसमाध्भिि नतिभि: कंचित्कथाकर्णनै:।
कंचित्कंचिदवेक्षणै नुतिभि: कंचिद्दशामीदृशीं
य: प्राप्नोति मुदा त्वदखपतमना जीवन्स मुत्तफ: खलु।।81।।
हे उमासहित महेश! आपके चरणकमलों के पूजन से, और कुछ यान समाधि् से, कुछ आपसे संबंध्ति कथा वार्ता से, कुछ कुछ दर्शन व स्तुतियों से, कुछ तक आनन्दमग्न होकर, आपमें ही निरन्तर मन लगा देने से, इस प्रकार की किसी आलौकिक दशा–अनिर्वचनीय अवस्था को, जो प्राप्त करता है, वस्तुत: वही जीवन्मुत्तफ है।
बाणत्वं वृषभत्वमध्र्वपुषा भार्यात्वमार्यापते
घोणित्वं सखिता मृदवहता चेत्यादि रूपं दधै।
त्वत्पादे नयनार्पणं च कृतवांस्त्वद्देहभागो हरि:
पूज्यात्पूज्यत: स एव हि न चेत्को वा तदन्योध्कि:।।82।।
हे मायापते! आपके देह के एक भागस्वरुप हरि, भगवान् विष्णु, कभी आपके बाण का रूप धरण करते हैं, तो कभी वृषभ का, कभी आध्े शरीर में सुन्दरी का रूप धरण कर लेते हैं, और कभी सूकरादि नाना रूप धरण करते हैं, कभी अजुर्न के रूप में सखिता मित्राता आदि का रूप धरण कर, निरन्तर आपके चरण कमलों में ही यान लगाया करते हैं, तब बताइए वे ही सबसे अध्कि पूजनीय नहीं होंगे, तो पिफर उनसे अध्कि पूजनीय दूसरा कौन हो सकता है।
जननमृतियुतानां सेवया देवतानां
न भवति सुखलेश: संशयो नास्ति तत्रा
अजनिममृतरूपं साम्बमीशं भजन्ते
य इह परमसौख्यं ते हि ध्न्या लभन्ते।।83।।
इस संसार में जो लोग जन्म–मरण–ध्र्म वाले, देवताओं की सेवा करते हैं, वे सुखलेश को भी प्राप्त नहीं करते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है, परन्तु जो लोग जन्म–मरण ध्र्म रहित, अमृत रूप उमासहित महेश का भजन करते हैं, वे भाग्यशाली ही परमसौभाग्य को प्राप्त करते हैं।
शिव तव परिचर्यासनिधनाय गौर्या
भव मम गुणध्ुर्या बुि(कन्यां प्रदास्ये।
सकलभुवनबन्धे सच्चिदानन्दसिन्धे
सदय हृदयगेहे सर्वदा संवस त्वम्।।84।।
हे शिव! गौरी के द्वारा आपकी पूजा में सुविध के लिए, मैं अपनी श्रेष्ठ गुणों से युत्तफ, बुि(रूपी कन्या को प्रदान करता हूँ। अर्थात् गौरी आपकी परिचर्या–सेवा पूजा में परायण है, उन्हेें किसी प्रकार की असुविध या कठिनाई न हो, इसके लिए उनकी सहायता के रूप में मैं गुणगणों से युत्तफ अपनी बुि(रूपी कन्या को उत्तफ पूजा के सहायता हेतु, प्रदान करता हूँ। तात्पर्य यह है मेरी बुि( भी, आपकी सपर्या पूजा में लगी रहे। इसलिए हे भव! हे सम्पूर्ण भुवन के एकमात्रा बन्ध्ु! सत् चित् व आनन्द के सागर! हे दयालो! आप हमेशा मेरे हृदयरूपी घर में ही निवास करें।
जलध्मिथनदक्षो नैव पातालभेदी
न च वनमृगायायां नैव लब्ध्: प्रवीण:।
अशनकुसुमभूषावस्त्रमुख्यां सपया
कथय कथमहं ते कल्पयानीन्दुमौले।।85।।
हे चन्द्रशेखर! आप न तो जलधि् समुद्र के मन्थन में कुशल हैं, और न पातालभेदी ही हैं, भगवान् रामचन्द्र की तरह वनमृगया में भी चतुर नहीं है, अथवा प्रकृष्ट वीणा वंशी आदि वादन में ही आप कुशल नहीं हैं, पिफर कहिए ध्ूप–दीप नैवेद्य, वस्त्रालारादि ही हैं प्रमुख सामग्री जिसमें, इस प्रकार की आपकी पूजा को मैं कैसे करूँ।
पूजाव्यसमृ(यो विरचिता: पूजां कथं कुर्महे
पक्षित्वं न च वा किटित्वमपि न प्राप्तं मया दुर्लभम्।
जाने मस्तकम्घ्रिपल्लवमुमाजाने न तेहं विभो
न ज्ञातं हि पितामहेन हरिणा तत्त्वेन तूपिणा।।86।।
हे उमापति! हमने अच्छी तरह सारी पूजा सामग्री तो उपस्थित कर ली, परन्तु किस विधि्, से या कैसे पूजा की जाय, यह मालूम नहीं है, पक्षिरुप में अथवा कीट रुप में दुर्लभ आपका सेवा अवसर भी हमें प्राप्त नहीं हो सका। हे विभो! केवल आपके पदपल्लवों में अपना मस्तक नवाता हूँ। आपके स्वरूप में लीन पितामह और भगवान् विष्णु भी जब तत्व रूप से आपको नहीं जान सकते, तो पिफर मन्दमति मैं कैसे आपको जानूँगा।
अशनं गरलं पफणी कलापो वसन चर्म च वाहनं महोक्ष:।
मम दास्यसि क किमस्ति शंभो तव पादाम्बुजभत्तिफमेव देहि।।87।।
हे शम्भो! आपका अशन–खान–पान तो केवल गरल–विष है, अर्थात् आप विषपान करते हो, पफणाधरी भुजा आपके भूषण हैं, आपका परिधन गजचर्म हैं, बूढ़ेबैल की सवारी है। इस प्रकार स्वयं अकि न आप मुझे क्या देंगे? आपके पास तो कुछ भी, किसी को देने योग्य वस्तु नहीं है, अत: यह सब न देखकर, आप अपने चरणकमलों की भत्तिफ मुझे प्रदान करें।
यदा कृताम्भोनिध्सिेतुबन्ध्न: करस्थलाध्:कृतपर्वताध्पि:।
भवानि ते लिातपसंभवस्तदा शिवार्चास्तवभावनक्षम:।।88।।
हे प्रभो! रामावतार में, वे भगवान् विष्णु लंका को जाने के लिए समुद्र में पुल बाँध्ने लगे, तो बाँध् के लिए उन्होंने कपि आदि की सहायता से पर्वत तोड़ तोड़ कर पत्थरों का ढेर लगा दिया, और समुद्र को पार किये, इस समुद्र के सेतुबन्ध्न की सपफलता को, उन्होने केवल आपका प्रसाद समझा, तब उन्होंने ‘सेतुबन्ध् रामेश्वर में’ आपके लि की स्थापना कर, वहाँ विध्वित् पूजा की। इस प्रकार भगवान् की पूजा का निमित्त तो सेतुबन्ध्न बन पड़ा, पर मैं किस निमित्त को लेकर आपकी भावना या पूजा में तत्पर रहूँ।
नतिभिनुर्तिभिस्त्वमीश पूजाविध्भििर्यानसमाध्भििन तुष्ट:।
ध्नुषा मुसलेन चाशमभिर्वा वद ते प्रीतिकरं तथा करोमि।।89।।
हे भगवान्! यदि आप नमस्कारों, स्तुतियो, पूजाविध्यिों और यान समाधि् आदि से संतुष्ट नहीं होते हैं, तो क्या पिफर ध्नुष, हल, मुसल, पत्थर आदि से प्रस होते हैं? कहिए? आप जिस प्रकार के कर्म या आचरण से प्रस होंगे, मैं भी वैसा ही कर्म या आचरण करूँगा।
वचसा चरितं वदामि शंभोरहमुद्योगविधसु तेप्रसत्तफ:।
मनसाकृतिमीश्वरस्य सेवे शिरसा चैव सदाशिवं नमामि।।90।।
हे शम्भो! मैं आपकी विध्वित् पूजा–अर्चाना–यान–समाधि्आदि विधओं को सम्यक् सम्पादन करने में असमर्थ होता हुआ, केवल वचन से आपके चरितों का बखान करता हूँ, मन से आपकी आकृति;झांकीद्ध का यान करता हूँ, और शिर से आपको प्रणाम करता हूँ।
आद्याविद्या हृद्गता निर्गतासोद्विद्या हृद्गता त्वत्प्रसादात्।
सेवे नित्यं श्रीकरं त्वत्पदाब्जं भावे मुत्तफेर्भाजनं राजमौले।।91।।
हे चन्द्रशेखर! आपकी कृपा से अनादि अविद्या ;मूलाविद्याद्ध निकल गई, पुन: आपके ही प्रसाद से, हृदय में शु( विद्या का उदय हुआ। हे शम्भो! मैं नित्य कल्याणकारक व शोभा सम्प, आपके ही चरणकमलों का सेवन करता हूँ, और मुत्तिफ के भाजनभूत आपकी भावना करता हूँ।
दूरीकृतानि दुरितानि दुरक्षराणि
दौर्भाग्यदु:खदुरहंकृतिदुर्वचांसि।
सारं त्वदीयचरितं नितरां पिबन्तं
गौरीश मामिह समु(र सत्कटाक्षै:।।92।।
हे शम्भो! आपने मेरे दुर्भाग्य स्वरूप या पापरूप में स्थित जो भाग्याक्षर थे, वे दूर किये, साथ ही साथ मेरे दुर्भाग्य दु:ख, तथा मिथ्याहंकार, और कटुभाषणादि दुर्वचनों को भी, दूर किया है। हे गौरीनाथ! अब इस समय यहाँ अत्यन्त सारभूत आपके चरितामृत का पान करने वाले मेरा, अपने करुणापूर्ण कटाक्षों से उ(ार कीजिए।
सोमकलाध्रमौलौ कोमलघनकंधरे महामहसि।
स्वामिनि गिरिजानाथे मामकहृदयं निरन्तरं रमताम्।।93।।
हे शम्भो! मेरा हृदय, मस्तक में चन्द्र कला धरण किये हुये, महा तेजस्वी, कोमल एवं पुष्ट कन्ध्रा वाले, स्वामी पार्वती नाथ में निरन्तर लगा रहे।
सा रसना ते नयने तावेव करौ स एव कृतकृत्य:।
या ये यौ यो भग वदतोक्षेते सदार्चत: स्मरति।।94।।
वस्तुत: किसी मनुष्य की रसना–जिा जीभ वही है, जो भगवान् शर के विषय में बोलती है, अर्थात् भगवान् शर का गुणगान करने वाली रसना ही वस्तुत: रसना है, अन्य तो पिफर सामान्य जीभ मात्रा है। किसी भाग्यशाली पुरुष के नेत्रा भी वस्तुत: वही नेत्रा है, अर्थात् वे नेत्रा अत्यन्त भाग्यशाली हैं, जो हमेशा भगवान् शर के दर्शन किया करते हैं। हाथों की भी सपफलता इसी मेें है, जबकि वे भगवान् शर की पूजा में लगे रहें, अन्यथा तो खाली हाथमात्रा हैं। वस्तुत: वही पुरुष कृतकृत्य पुण्यात्मा है, जो हमेशा भगवान् शर का स्मरण किया करता है।
अतिमृदुलो मम चरणावतिकठिनं ते मनो भवानीश।
इति विचिकित्सां संत्यज शिव कथमासीद्गिरौ तथा वेश:।।95।।
हे भवानिपते! मेरे चरण अत्यन्त कोमल हैं, और भत्तफ का मन बड़ा कठोर है, अत: कैसे मैं भत्तफ के मन में विचरण करूँग? इस प्रकार के सन्देह को छोड़ो, क्योंकि आप तो पर्वतराज हिमालय व कैलास के कठिन वन प्रस्तर भागों में विचरण करने वाले हो, जब उस प्रकार के कठिन से कठिन वन प्रस्तर भागों में विचरण करने वाले हो, जब उस प्रकार के कठिन से कठिन खण्डों में, आप विचरण कर लेते हैं, तो पिफर भत्तफ हृदय तो पत्थर से कठिन नहीं है, अत: नि:सन्देह आप बड़ी तबीयत से, भत्तफ के हृदय में विचरण किया करें।
ध्ैर्याशेन निभृतं रभसादाकृष्य भत्तिफश्रृलया।
पुरहर चरणालाने हृदयमदेभं बधन चिद्यन्त्रौ:।।96।।
हे पुरहर शम्भो! मेरे हृदय को, अपने चरणरुपी खम्भे में, ध्ीरे–ध्ीरे ध्ैर्यरूपी अंकुश से वश में करके, भत्तिफरूपी श्रृंखला से, जोर से खींचकर, चैतन्य रूप यन्त्राों द्वारा, अभेदभावना या अद्वैत भावना से बाँध् दो।
प्रचरत्यभित: प्रगल्भवृत्त्या मदवानेष मन:करी गरीयान्।
परिगृह्य नयेन भत्तिफरज्ज्वा परम स्थाणु पदं दृढं नयामुम्।।97।।
हे शम्भो! मदमस्त विशाल यह मेरा मन रूपी हाथी, स्वच्छन्द वृत्ति से इध्र–उध्र चारों ओर ;विषय प्रदेश मेंद्ध घुमता है, इस मनरूपी हाथी को नीतिपूर्वक भत्तिफरूपी रस्सी से बाँध्कर, नित्य–स्थिर–शाश्वत–परम शिव के, परमधम की ओर ले चलो।
सर्वालंकारयुत्तफां सकलपदयुतां साधुवृत्तां सुवणा
सि: संस्तूयमानां सरसगुणयुतां लक्षितां लक्षणाढाम्
उद्यूषाविशषामुपगतविनयां द्योतमनाथरेखां
कल्याणीं देव गौरीप्रिय मम कविताकन्यकां त्वं गृहाण।।98।।
हे देव! हे गौरीप्रिय! आप मेरी सभी उपमा आदि अलारों से युत्तफ, अथवा सभी प्रकार के आभरणों गहनों से सुशोभित, सभी प्रकार के दीर्घ या असमस्त समस्त पदों से युत्तफ, अथवा सभी प्रकार के स्थान में रहने योग्य, सुन्दर छन्दों से बनाई गई, अथवा सुन्दर आचरण से युत्तफ, सुन्दर स्वर व्य नादि वणो से युत्तफ या स्वच्छ गौरादि वर्ण से युत्तफ, काव्यशास्त्राोंं के द्वारा प्रशंसनीय, अथवा सन्तों द्वारा श्लाघनीय, रस श्रृंगारादि, गुण माध्ुर्यादि से युत्तफ, अथवा सुन्दर चेष्टा हावभावा और दयादाक्षिण्यादि से युत्तफ, उत्तफ गुणगणों से तथा सुन्दर लक्षणों से युत्तफ, प्रकट हो रही है वेषभूषा की विशेषता जिसमें, विनय से पूर्ण प्रस्पफुरित है, या सरलतया अवगत हो रही है अर्थ रूपी रेखा जिस कविता में अथवा सापफ प्रकट है ललाटादि स्थलों में सौभाग्यादि रेखायें जिसकी, ऐसी मंगलप्रद शुभ कवितरूपी कन्या को स्वीकार करें।
इदं ते युत्तफं वा परमशिव कारुण्यजलध्े
गतौ तिर्यग्रूपं तव पदशिरोदर्शनध्यिा।
हरिब्राणौ तौ दिवि भुवि चरन्तौ श्रमयुतौ
कथं शंभो स्वामिन्कथय मम वेद्योसि पुरत:।।99।।
हे परमशिव! हे करुणा के सागर! आपके चरण तथा शिर की खोज के लिए, या दर्शन के लिए पक्षिस्वरुप को धरण किए हुए, विष्णु व ब्रा आकाश, पाताल व पृथ्वी में विचरण करते करते थक गये बेचारे, पिफर भी आप उनके दृष्टिपथ में नहीं आये, इस तरह से उन्हें परेशान करना;आपकोद्ध उचित है क्या? हे शम्भो! हे स्वामिन्! जब संसार के पालक व निर्माताओं के ही आप दृष्टिपथ में नहीं आते हैं, तो पिफर एक सामान्य व्यत्तिफ मेरे सामने कैसे आप आयेंगे, अर्थात् तब मैं कैसे आपका साक्षात्कार कर सकूँगा।।
स्तोत्रोणलमहं प्रवच्मि न मृषा देवा विरिादय:
स्तुत्यानां गणनाप्रससमये त्वामग्रगण्यं विदु:।
माहात्म्याग्रविचारणप्रकरणे धनातुषस्तोमव
(ूतास्त्वां विदुरुत्तमोत्तमफलं शंभो भवत्सेवका:।।100।।
हे शम्भो! अब आगे और स्तुति करने से क्या पफायदा, मैं सच सच कहता हूँ, तो उनमें आपको ही सर्वाग्रणी मानते है। और जब कभी आपके माहात्म्य के विचार का समय आता है, तो पिफर आपके भत्तफ, अन्य देवताओं को उसी प्रकार छोड़ देते है, जिस प्रकार किसान धन के तुष व डण्ठल को छोड़कर,उत्तम धन्य पफल को ही ग्रहण करते हैं। अत: आप ही देवताओं में सर्वोत्तम पफल स्वरुप है।
।।इति शिवानन्दलही।।
शिवयोगी रघुवंशपुरी जी
कलाभ्यां चूडालंकृतशशिकलाभ्यां निजतप:
पफलाभ्यां भक्तेषु प्रकटितपफलाभ्यां भवतु मे।
शिवाभ्यामस्तोकत्रिाभुवनशिवाभ्यां हृदि पुन
र्भवाभ्यामानन्दस्पफुरदनुभवाभ्यां नतिरियम्।।1।।
भत्तफों के विषय में ;भत्तफ वात्सल्य रूपद्ध स्पष्ट है पफल जिनका, अर्थात् भत्तफों की कामनाओं को जो सद्य: सपफल बना देते हैं। जिनकी तपस्या के पफल के समान, शेखर में सुशोभित चन्द्रकला विराजमान है, स्वयं जो ;स्थित्युत्तिप्रलयादिद्ध कलाओं से सम्प हैं, स्वयं कल्याणस्वरूप समस्त संसार के कल्याणकारक, पुन: हृदय में जो आनन्द व अनुभव के रूप में स्पफुरित होते रहते हैं, ऐसे जगज्जननी माता पार्वती व जगत् पिता परमेश्वर शिव के लिए मेरा यह प्रणाम है।
गलन्ती शंभो त्वच्चरितसरित: किल्बिषरजो
दलन्ती ध्ीकुल्यासरणिषु पतन्ती विजयताम्।
दिशन्ती संसारभ्रमणपरितापोपशमनं
वसन्ती मच्चेतोदभुवि शिवानन्दलहरी।।2।।
हे शम्भो! आपके ;विचित्राद्ध चरित्रारूपी सरिताओं से निकलने वाली, पापरूपी ध्ूलि को नष्ट करने वाली, अथवा पापरूप दु:खात्मक जो रजोगुण है, उसको दूर करने वाली, विभि बुि( वृत्तियों में प्रतिपफलित होने वाली, तथा संसार जन्य जो परिताप है, उसको शान्त करने वाली, मेरे मन रूपी मानसरोवर में निरन्तर बसने वाली यह शिवानन्दलहरी ;शिवस्वरूप–आनन्द–की–तरंगद्ध सर्वोत्कृष्ट है, अर्थात् मेरे लिए तथा सभी के लिए नमस्करणीय है।
त्रायीवेद्यं हृद्यं त्रिापुरहरमाद्यं त्रिानयनं
जटाभारोदारं चलदुरगहारं मृगध्रम्।
महादेवं देवं मयिं सदयभावं पशुपत
चितालम्बं साम्बं शिवमतिबिडम्बं हृदि भध्े।।3।।
वेद व वेदान्त के द्वारा जानने योग्य, सुन्दर, त्रिापुरासुर को मारने वाले, चिरन्तन, त्रिानयन तीन नेत्रों वाले, घनी जटाओं से सुशोभित, जिनके गले में सर्प रूपी हार लटकरद्य है, ऐसे मृग को धरण करने वाले, मेरे लिए परम दयालु, देवताओं में महान् पशु–जीवों के पति स्वामी, पार्वतीसहित, अति विलक्षण स्वरूप वाले, ऐसे भगवान् शिव का मैं हृदय से भजन करता हूँ।
सहं बर्तन्ते जगति विबुध: क्षुापफलदा
न मन्ये स्वप्ने वा तदनुसरणं तत्कृतपफलम्।
हरिब्रादीनामपि निकटभाजामसुलभं
चिरं याचे शंभो शिव तव पदाम्भोजभजनम्।।4।।
हे शम्भो! संसार में क्षुद्रपफलों को देने वाले, हजारों देवता है, मैं तो स्वप्न में भी उनका अनुसरण, तथा उनके द्वारा अनन्त पफलों की कामना नहीं करता, हे शिव! मैं तो केवल, समीपस्थ ब्रा व विष्णु के लिऐ भी दुष्प्राप्य आपके चरणकमलों के भजन को ही सदा के लिए चाहता हूँ।
स्मृतौ शास्त्रो वैद्ये शकुनकवितागाानपफणितौ
पुराणे मन्त्रो वा स्तुतिनटनहास्येष्वचतुर:।
कथं राज्ञां प्रीतिर्भवति मयि कोहं पशुपते
पशुं मां सर्वज्ञ प्रथितकृपया पालय विभो।।5।।
हे शम्भो! हे पशुपते! मैं तो स्मृति, शास्त्रा, वैद्यकविद्या, शकुनविज्ञान, कवितापाठ आदि पुराणप्रवचन, मन्त्रा, तन्त्रा और स्तुति नाटक व हास्य कथाओं को विनोदपूर्वक कहने में अचतुर हूँ, तब बडे़ बडे़ राजा महाराजाओं की मेरे उपर कृपा कैसे हो सकती है, हे सर्वज्ञ! शम्भो! आप सर्वज्ञ हैं और पशुपति हैं। अत: अल्पज्ञ–पशुरूप इस जीव की, कृपा करके रक्षा कीजिए। उत्तफ पद्य में पशुपति व सर्वज्ञ ये सम्बोध्न साभिप्राय भी हैं, क्योंकि पशुपति पशुओं का जो मालिक होता है, उसका तो यह कर्तव्य ही है, कि पशुओं की देखभाल करना, इसमें भी सर्वज्ञ यदि वह पशुपति हुआ, तो पिफर कहना हीं क्या? अर्थात् एक जानकार पशुओं का मालिक क्या अपने पशुओं की भी उपेक्षा कर सकता है? समय समय में खानापानी देकर वह तो उन्हें सुखी रख्ेागा। इसी प्रकार भत्तफ कहता है कि मैं तो अल्पज्ञ हूँ अत: पशु के समान हूँ, चूँकि आप सर्वज्ञ हैं, और पशुपति मेरे मालिक भी है। अत: इस गहन संसार में सर्वथा मेरी रक्षा करेंगे हीं, मेरी उपेक्षा तो आप कभी नहीं कर सकते हैं, इत्यादि।
घटो वा मृत्पिण्डोप्यणुरपि च ध्ूमोग्निरचल:
पटो वा तन्तुर्वा परिहरति क घोरशमनम्।
वृथा कण्ठोभं वहसि तरसा तर्कवचसा
पदाम्भोज शंभोर्भज परमसौख्य व्रज सुध्ी:।।6।।
हे विद्वान! आप न्यायशास्त्रा के घट, पट, कपाल, तन्तु, ध्ूम, अग्नि व पर्वत इत्यादि पदाथो को ही निरन्तर क्यों रट रहे हो? क्या इन पदाथो के रटने से अन्तिम समय में भयानक उस यमराज का परिहार हो जायेगा क्या? कदापि नहीं व्यर्थ के परिश्रम से क्या कोई सांसारिक ताप शान्त हो सकता है। तस्मात् इस घटपटादि के व्यर्थ जजाल को छोड़कर भगवान् शर के चरणकमलों का भजन करो, जिसके द्वारा परमसौख्य की प्राप्ति हो सकती है।
कहने का तात्पर्य यह है कि नैयायिक लोग ;न्यायशास्त्रा के अध्येताद्ध अपना सारा जीवन न्यायशास्त्रा के महत्त्वपूर्ण तत्त्वों को, घटपटादि दृष्टान्तों को सामने रखकर कार्य कारण भाव दिखलाया करते हैं, जैसे–समवायेन काय प्रति तादात्म्येन द्रव्यं कारणम्, जैसे– घट व कपाल में परस्पर कार्यकारण भाव समवायसम्बन्धवच्छित्रा घटत्वावच्छिा, या कारणता सा किद् ध्र्मावच्छिा कपालनिश, इत्यादि प्रकार से घट व कपाल के पट व तन्तु के कार्यकारण भाव को सि( करने में, तथा पर्वतों वगिमान् ध्ूमात् इत्यादि अनुमान वाक्यों में पक्ष साय व हेतु के विचार में ही अपना सारा जीवन बिता देते हैं, ऐसे शुष्क नैयायिकों को लक्ष्य करके शम्भुभत्तफ कह रहा है, कि हे विद्वान् क्या ‘घटोनित्य: कृतकत्वात् पटवत्’ इत्यादि घटपटादि विषयक अनुमान वाक्यों को जोर जोर से रटकर ही अपनी जिन्दगी बिता दोगे क्या? जिससे अन्त में कुछ भी सारवस्तु तुम्हारे हाथ में नहीं आनी, भला शर जी के चरणकमलों का भजन कर लो, जिससे इस त्रिाविध् ताप से तो मुत्तफ हो जाते हो, तथा परमपुरूषार्थ को प्राप्त करते।
मनस्ते पदाब्जे निवसतु वच: स्तोत्रापफणितौ
करौ चाभ्यर्चायां श्रुतिरपि कथाकर्णनविधै।
तब याने बुि(र्नयनयुगलं मूखतविभवे
परग्रन्थान्कैर्वा परमशिव जाने परमत:।।7।।
कोई शर भत्तफ स्वयं अपनी दिनचर्या बतलाते हुए कह रहा है, कि हे शम्भो! मेरा मन हमेशा, आपके चरणकमलों में रहता है, मेरी वाणी आपकी स्तुतिगान करती है, मेरे हाथ आपकी पूजा में ही व्यस्त रहते हैं, और मेरे कान आपकी कथा का पान करते हैं, मेरी बुि( आपके यान में मस्त रहती है, और ये नयनयुगल आपके स्वरूप के सौन्दर्य को निहारते हैं, बस अब कोई ऐसी इन्द्रिय बाकी नहीं कि जिससे मैं किसी अन्य ग्रन्थों को पढ़ सकूँ। कहने का अभिप्राय यह है कि मेरी सारी इन्द्रियाँ तो आपकी तत्तत् सेवा में संसत्तफ है, अब हमें पफुरसत ही कहाँ है बाह्यविषयों के ग्रन्थों के अययन की।
यथा बुि(: शुत्तफौ रजतमिति काचाश्मनि मणि
र्जले पैष्टे क्षीरं भवति मृगतृष्णासु सलिलम्।
तथा देवभ्रान्त्या भजति भवदन्यं जडजनो
महादेवेशं त्वां मनसि च न मत्वा पशुपते।।8।।
जिस प्रकार भ्रन्तिवश शुत्तिफ में रजत का ज्ञान होता है, काच में मणि का ज्ञान, पिष्ट युत्तफ जल में, पावडर युत्तफ जल में, दुग्ध् का ज्ञान होता है, और मृगतृष्णा में, जल बुि( होती है, उसी प्रकार हे पशुपते! यह मन्दगति जन मन में, महादेव आपको न मानकर, भ्रान्तिवश किसी अन्य देव को महादेव समझकर भजन करता है।
गभीरे कासारे विशति विजने घोरविपिने
विशाले शैले च भ्रमति कुसुमाथ जडमति:।
समप्यैर्कं चेत:सरसिजमुमानाथ भवते
सुखेनावस्थातुं जन इह न जानाति किमहो।।9।।
हे उमानाथ! इस संसार में मन्दगति, पुष्प के लिए कभी तो गम्भीर तालाब में प्रवेश करता है, तो कभी निर्जन व घनघोर जंगल में भ्रमण करता है। बडे़ आश्चर्य की बात है कि लोग केवल एक अपने हृदयरूपी कमल को आपको समर्पण कर, इस संसार में सुख से रहना नहीं जानते हैं।
नरत्वं देवत्वं नगवनमृगत्वं मशकता
पशुत्वं कीटत्वं भवतु विहगत्वादिजननम्।
सदा त्वत्पादाब्जस्मरणपरमानन्दलहरी
विहारासक्तं चे(ृदयमिह क तेन वपुषा।।10।।
हे शम्भो! इस संसार में यदि हमारा हृदय, हमेशा आपके चरणकमलों के स्मरणरूपपरमानन्दलहरी के विहार में आसत्तफ है, तो पिफर हमारा जन्म भले ही देव योनि, नर योनि, पर्वतीयवन मृग की योनि में, अथवा पशु, कीट मशक, पक्षी आदि योनियों में ही क्यों न हो, इससे हमारा कुछ नहीं बिगड़ता, अर्थात् चाहे किसी भी शरीर में रहें, यदि आपके चरणारविन्दमकरन्द का पान होता हो, तो पिफर कोई बड़ी हानि नहीं है।
बटुर्वा गेही वा यतिरपि जटी वा तदितरो
नरो वा य: कश्चिद्भवतु भव क तेन भवति।
यदीयं हृत्पद्मं यदि भवदध्ीनं पशुपते
तदीयस्त्वं शंभो भवसि भवभारं च वहसि।।11।।
हे शर! इस संसार में मनुष्य चाहे किसी वर्ण या आश्रम में हो, वह ब्रचारी हो, गृहस्थी हो, संन्यासी हो, चाहे जटाधरी हो, अथवा इनसे अतिरित्तफ कोई भी हो, इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। हे पशुपते! असली बात तो यह है, कि जिसका हृदयकमल आपके अध्ीन हो जाता है, निश्चित आप उसके हो जाते हैं। हे शम्भो! इसीलिए आप, उसके जीवन यात्राा के सारे भार या जिम्मेदारी को भी सम्हाल लेते हो।
गुहायां गेहे वा बहिरपि वने वािशिखरे
जले वा वौ वा वसतु वसते: क वद पफलम्।
सदा यस्यैवान्त:करणमपि शंभो तव पदे
स्थितं चेद्योगोसौ स च परमयोगी स च सुखी।।12।।
हे शम्भो! इस संसार में मनुष्य चाहे गुहा में रहे, या घर में, बाहर, अथवा वन में, या पर्वतशिखर में, जल में अग्नि समीप, चाहे कहीं भी रहे, किसी स्थान विशेष में रहने का थोड़ी कोई महत्त्व है, महत्त्व की बात तो यह है, कि जिसका अन्त:करण भी सर्वदा आपके चरणकमलों में लगा रहता है, वस्तुत: वही यानी, परमयोगी और सबसे अध्कि सुखी है।
असारे संसारे निजभजनदूरे जडध्यिा
भ्रमन्तं मामन्ध्ं परमकृपया पातुमुचितम्।
मदन्य: को दीनस्तव कृपणरक्षातिनिपुण
स्त्वदन्य: को वा में त्रिाजगति शरण्य: पशुपते।।13।।
हे पशुपते! अपनी मन्दमति के कारण, असार इस संसार में, मैं आपका भजन नहीं कर सका, अतएव अन्धें की तरह भटकता ही रहा, ऐसी दशा में कृपा पूर्वक मेरी रक्षा करना उचित हीं है, क्योंकि आपके भत्तफों में मेरे से बढ़कर दीन कोई नहीं है, और तीनों लोकों में दीनों की रक्षा में तत्पर आपके समान शरण देने वाला भी कोई नहीं है।
प्रभुस्त्वं दीनानां खलु परमबन्ध्ु: पशुपते
प्रमुख्योहं तेषामपि किमुत बन्ध्ुत्वमनयो:।
त्वयैव क्षन्तव्या: शिव मदपराधश्च सकला:
प्रयत्नात्कर्तव्यं मदवनमियं बन्ध्ुसरणि:।।14।।
हे पशुपते! आप प्रभु, सबके स्वामी होते हुए भी, विशेषकर दीनों के परमबन्ध्ु हो, और उन दीनों में मेरा स्थान सबसे पहले है, अर्थात् मैं तो प्रथम श्रेणी का दीन हूँ, तब आपकी और मेरी बन्ध्ुता में ;दोस्ती मेंद्ध सन्देह हीं क्या है, इसलिए हे शिव! आप मेरे जाने अनजाने सारे अपराधें को क्षमा करें, इतना हीं नहीं, बड़ी सावधनी से मेरी रक्षा भी करें, संसार में बन्ध्ुओं का यही आदर्श व्यवहार भी है।
उपेक्षा नो चेत्क न हरसि भ(ानविमुखां
दुराशाभूयिशं विध्लििपिमशत्तफो यदि भवान्।
शिरस्तद्वैधत्रां न न खलु सुवृत्तं पशुपते
कथं वा निर्यत्नं करनखमुखेनैव लुलितम्।।15।।
हे पशुपते! यदि मेरे विषय में आपकी उपेक्षा नहीं है, तो पिफर आप अपने यान से विमुख निराशाप्रधन, उस ब्रा की लिखी हुई ललाक्षर पंत्तिफ को लुप्त क्यों नहीं कर देते अर्थात् यदि मेरे भाग्य में ब्रा ने ईश्वर भजन शून्य कोई पदावली अति की है, तो आप में तो इतना सामथ्र्य है, कि आप इस प्रकार विधता से निखमत ललाक्षर पदावली को बदल सकते हैं, जब आप स्वयं अपने करकमलों के नखाग्रभाग से ही अनायास उस विधता के शिर का तक निर्माण कर सकते हैं, तब उसके द्वारा रचित पदपंत्तिफ को बदलने में कौन सा प्रयास है।
विरिदिर्ीर्घायुर्भवतु भवता तत्परशिर
श्चतुष्कं संरक्ष्यं स खलु भुवि दैन्यं लिखितवान्।
विचार: को वा मां विशदकृपया पाति शिव ते
कटाक्षव्यापार: स्वयमपि च दीनावनपर:।।16।।
हे शम्भो! आप ब्रा जी के चारों शिरों की रक्षा खूब सावधनी से करें, क्योंकि वे संसार में सभी जनों के शिरों ;ललाटोंद्ध में दीनता का उल्लेख करते हैं, एक तरह से भत्तफ यहाँ भगवान् को मीठा उपालम्भ ;उलाहनाद्ध दे रहा है, कि जो विधता दुनिया के शिरों को दुर्भाग्यग्रस्त कर देता है, आप उसके शिरों की रक्षा बड़ी तत्परता से कर रहे हैं, क्या यह उचित है, भगवन्! ऐसी स्थिति में आपकी निर्मल दया ही मुझे बचा सकती है, अथवा मुझे चिन्ता करने की भी कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि दीनों की रक्षा करना आपके कटाक्षों का स्वभाव है।
पफलाद्वा पुण्यानां मयि करुणया वा त्वयि विभो
प्रसेपि स्वामिन् भवदमलपादाब्जयुगलम्।
कथं पश्येयं मां स्थगयति नम: संभ्रमजुषां
निलिम्पिानां श्रेणिखनजकनकमाणिक्यमुकुटै:।।17।।
हे भगवान्! किन्हीं पूर्वोपाखजत पुण्यों के द्वारा, अथवा आपकी ही परमकृपा से, आपके प्रस हो जाने पर भी, मैं आपके निर्मल चरणकमलों का दर्शन कैसे करूँ? क्योंकि आकाश से बडे़ वेग से या निरन्तर भीड़ लगाये हुए देवताओं की पंत्तिफ, अपने सुवर्ण व माणिक्य रचित मुकुटों से मेरी दृष्टि को ढक देती है। तात्पर्य यह है कि जब जब भी मैं आपके चरणकमलों का दर्शन करना चाहता हूँ, तब तब अर्थात् हमेशा, मैं देवताओं के मणिक्यमुकुटों से आपके चरणकमलों को घिरा हुआ हीं पाता हूँ। अत: स्वच्छन्दतापूर्वक आपके चरणकमलों का दर्शन मैं नहीं कर पाता हूँ।
त्वमेको लोकानां परमपफलदो दिव्यपदवीं
वहन्तस्तवन्मूलां पुनरपि भजन्ते हरिमुखा:।
कियद्वा दाछिण्यं तब शिव मदाशा च कियती
कदा वा मक्षां वहसि करुणापूरितदृशा।।18।।
हे शिव! लोगों के लिए एकमात्रा आप ही परमपफल देने वाले हो, क्योंकि आपकी ही दिव्य पदवी ;दैवी उपाध्ीद्ध को धरण करने वाले हरि ब्रादि भी आपका ही भजन करते हैं।
हे शम्भो! आपकी उदारता का वर्णन हम कहाँ तक करें, और अपनी तुच्छ इन आशाओं के विषय मे भी क्या कहें, सिपफर् इतना ही कहना है, कि आप कब हमें अपनी करुणापूर्ण दृष्टि से देखेंगे।
दुराशाभूयिश्े दुरध्पिगृहद्वारघटके
दुरन्ते संसारे दुरितनिलये दु:खजनके।
मदायास क न व्यपनयसि कस्योपकृतये
वदेयं प्रीतिश्चेत्तव शिव कृपार्था: खलु वयम्।।19।।
हे शम्भो! दुराशा–कुत्सित–वासनाओं से परिपूर्ण एक क्रूर स्वामी के घर के द्वार के समान, जिसमें सिवाय दु:ख के और कुछ भी हासिल न हो सके, ऐसे पाप के भण्डार के समान दु:खजनक इस संसार में, कहिए आपकी यह प्रसता किस काम की? जो कि मेेरे सन्ताप को भी दूर नहीं कर सकती है, हे स्वामिन्! यह सब जानते हुए भी, आप क्यों इस सन्ताप को दूर नहीं करते, यदि यह त्रिविध् सन्ताप दूर हो जाए तब तो हम सब कृतार्थ हो जाऐं।
सदा मोहाटव्यां चरति युवतीनां कुचगिरौ
नटत्याशाशाखास्वटति झटिति स्वैरमभित:।
कपालिन् भिक्षो मे हृदयकपिमत्यन्तचपलं
दृढं भक्त्या बद्वा शिव भवदध्ीनं कुरु विभो।।20।।
हे शिव! मेरा यह हृदयरूपि कपि ;बन्दरद्ध हमेशा मोह रूपी जंगलों में स चरण करता है, और युवतियों के कुचरूपी पर्वतों में नाचता है, तथा अनेक प्रकार की आशारूपी शाखाओं के चारों ओर जल्दी–जल्दी स्वच्छन्दतापूर्वक घूमता है, हे विभो! हे कपालिन्, आप मेरे इस अत्यन्त च ल हृदयरूपि कपि को भत्तिफ रूपी रस्सी से अच्छी तरह बाँध्कर अपने अध्ीन कीजिए।
घृतिस्तम्भाधारां दृढगुणनिब(ां सगमनां
विचित्राां पाढां प्रतिदिवसन्मार्गघटिताम्।
स्मरारे मच्ेत: स्पफुटपटकुटीं प्राप्य विशदां
जय स्वामिन् शक्त्या सह शिवगणै: सेवित विभो।।21।।
हे स्मरारे! हे स्वामिन्! ध्ैर्यरूपि स्तम्भों के आधर वाली, मजबूत सत्वादि गुण रूपी रस्सियों से बांध्ी गई, चलती, विचित्रा कमलों से सुशोभित, निरन्तर सन्मार्ग की ओर अग्रसर होने से अत्यन्त स्वच्छ, मेरे इस चित्तरूपी पटकुटीर ;छावनीद्ध को प्राप्त कर, आप अपनी शत्तिफ व गणों के साथ होकर इसको जीतें।
प्रलोभाद्यैरर्थाहरणपरतन्त्राो ध्निगृहे
प्रवेशोद्युक्त: सन् भ्रमति बहुध तस्करपते।
इमं चेतश्चोरं कथमिह सहे शरविभो
तवाध्ीनं कृत्वा मयि निरपराध्े कुरु कृपाम्।।22।।
हे चोरें के अनुशाशक शम्भो! मेरा यह चित्तरूपी चोर, अनेक प्रलोभनों से या दुर्वासनाओं से ध्न की चोरी करने के लिए ध्निकों के घरों में प्रवेश पाने के लिए इध्र उध्र बहुत चकर काटता हीं रहता है, जब मैं इसको चोरी करने के मामले में सापफ देख रहा हूूँ, तो पिफर कैसे सहन कर सकता हूँ। अत: मैं इस चित्तरूपी चोर को आपके हवाले कर देना चाहता हूँ, क्योंकि आप तस्करपति –चोरों के अनुशासक अर्थात् नगर कुतूवाल हैं, अत: आप इस चोर को अपने अध्ीन कीजिए, तभी मैं सुखी हो सकता हूँ, मेरा इसके चोरी के साथ कोई संबंध् नहीं है, अत: मैं निरपराध् हूँ, इसलिए मेरे ऊपर कृपा कीजिए। वेद में भगवान् शर को ‘तस्कारणां पतेये’ भी कहा गया है, अर्थात् भगवान् चोरों के सरदार भी हैं, तब कोई भत्तफ भगवान् से कह रहा है कि हे भगवन् यदि यह चित्त रूपी चोर आपके गिरोह का कोई व्यत्तिफ होय, तो आप शीघ्र इसे अपने गिरोह के अन्दर कर लीजिए, अन्यथा बाहरी व्यत्तिफयों की नजर में यह आयेगा तो पिफर आपके गिरोह का भेद खुल जायेगा, और इसके साथ लेन देन का मेरा अपना कोई भी ताल्लुक नहीं है, इसलिए मैं निरपराध् हूँ, वस्तुत: विषयप्रदेश में चित्त के स चरण करने से, वासनाजन्य मालिन्य चित्त में ही रहता है, उसका आत्मा या जीवात्मा से कोई संबंध् नहीं है, अत: जीवात्मा का कथन है, कि मैं तो आपका ही अंश हूँ, मेरा इस चित्त के व्यापारों से कोई मतलब नहीं है, अत: निपराध् शु(–बु( स्वच्छ स्वभाव वाले मुझको तो आपके साथ ही एक होना है, इसी प्रकार की कृपा को भी मैं चाहता हूँ।
करोमि त्वत्पूजां सपदि सुखदो मे भव विभो
विध्त्विं विष्णुत्वं दिशसि खलु तस्या: पफलमिति।
पुनश्च त्वां ुं दिवि भुवि वहन् पक्षिमृगता
मदृ्वा तत्खेदं कथमिव सहे शर विभो।।23।।
हे विभो! मैं निरन्तर आपकी पूजा करता हूँ, आप मुझे सुख प्रदान करें। आपकी पूजा का पफल साधरण नहीं होता है, वह तो कभी ब्रा व विष्णु तक के पदों की प्राप्ति करा देता है। हे प्रभो! आपके दर्शन के लिए मैं तो स्वर्ग व मत्र्यलोक में पक्षि व मृगादि के रूप में विचरण करता हीं हूँ। यह सब कुछ होते हुए भी, पिफर भी जब आपका दर्शन नहीं मिलता है, तो पिफर इस दु:ख को मैं कैसे सहन कर सकता हूँ।
कदा वा कैलासे कनकमणिसौध्े सह गणै
र्वसन् शंभोरग्रे स्पफुटघटितमूर्धलिपुट:।
विभो साम्ब स्वामिन् परमशिव पाहीति निगद
न्वधतृणां कल्पान् क्षणमिव विनेष्यामिसुखत:।।24।।
हे शम्भो! सुर्वण व मणिमय भवनों से युत्तफ कैलास में भगवान् शर के सामने उनके गुणों के साथ रहता हुआ, मस्तक नमनपूर्वक नमस्कारा लि समर्पण करता हुआ, और हे विभो! हे साम्ब! हे स्वामिन्! हे परमशिव! मेरी रक्षा करो। इस प्रकार के शब्दों का उच्चारण करता हुआ, विधता ब्रा के कल्पों को एक क्षण के समान सुखपूर्वक कब बिता दूँ, अर्थात् ऐसा पुण्यमय समय कब आएगा?
स्तवैर्ब्रादीनां जयजयवचोभिखनयामिनां
गणानां केलीभिर्मदकलमहोक्षस्य ककुदि।
स्थितं नीलग्रीवं त्रिानयनमुमाश्लिवपुषं
कदा त्वां पश्येयं करघृतमृगं खण्परशुम्।।25।।
हे प्रभो! ब्रादिकों के जय जय वनि युत्तफ स्तुतियों से युत्तफ, तथा संयमी गणों के क्रीडाओं से समन्वित, मदमस्त सुन्दर बैल के पीठ में विराजमान, नीलग्रीव, त्रिानयन, उभा से संयुत्तफ, हाथ में मृग व खण्डपरशु को धरण किए हुए आपको, मैं कब देखूँ? अर्थात् ऐसा सौभाग्यमय अवसर कब आयेगा? जबकि मैं पूर्वोत्तफ आकार प्रकारों से संयुत्तफ आपको देख सकूँ?
कदा वा त्वां दृष्टवा गिरिश तव भव्या्घ्रियुगलं
गृहीत्वा हस्ताभ्यां शिरसि नयने वक्षसि वहन्।
समाश्लिष्याघ्राय स्पफुटजलजगन्धन् परिमला
नलाभ्यां ब्राद्यैमुर्दमनुभविष्यामि हृदय।।26।।
हे गिरीश! आपको देखकर आपके भव्य चरणयुगलों को हाथों से ग्रहण कर, शिर में, नेत्रों में, व हृदय में, धरण कर, उन चरणों का आलिन कर खिले हुए कमलों के गन्ध् युत्तफ पराग वाले उन चरणों को सूँघकर, ब्रादि देवताओं के लिए दुर्लभ प्रसता को अपने हृदय में कब प्राप्त करूँगा।
करस्थे हेमाौ गिरिश निकटस्थे ध्नपतौ
गृहस्थे स्वभूर्जामरसुरभिचिन्तामणिगणे।
शिरस्थे शीतांशै चरणयुगलस्थेखिलशुभे
कमथ दास्येहं भवतु भवदथ मम मन:।।27।।
हे गिरिश! जब आपके हाथ में ही सुमेरू पर्वत है, और समीप में ही ध्नपति कुबेर हंै, घर में ही स्वर्गापगा–गाजी हैं, और कामध्ेनु व चिन्तामणि आदि आपके समीप में ही सुलभ है, चन्द्रमा शिर में ही जब विराजमान हैं, सभी प्रकार के सौख्यों को प्रदान करने वाले जब आपके चरणयुगल हैं ही तो पिफर कौन सी ऐसी उत्कृष्ट वस्तु बची है, जिनको कि मैं आपको दे सकूँ। मेरे पास तो एक अपना मन है, अब उसी को मैं आपको समर्पण करता हूँ।
सारूप्यं तव पूजने शिव महोदवेति संकीर्तने
सामीप्यं शिवभत्तिफध्ुर्यजनतासांगत्यसंभाषणे।
सालोक्यं च चराचरात्मतनुयाने भवानीपते
सायुज्यं मम सि(मत्रा भवति स्वामिन्कृतार्थोम्यहम्।।28।।
हे शिव! हे भवानीपते! इसी लोक में आपके पूजन से मेरा ‘सारूप्य‘ ;समानरूपताद्ध सि( हो जाता है, क्योंकि यह नियम है ‘देवो भूत्वा देवान् यजेत्’ स्वयं देवता जैसा बनकर ही देवता की पूजा करें, अत: जब मैं आपका पूजन करता हूँ तो पिफर मैं भी आपके समान रूप वाला होता हूँ, इस केवल आपकी पूजा मात्रा से मैं आपका सारूप्य प्राप्त कर लेता हूँ और हे शिव! हे महादेव! इस प्रकार के शब्दों के संकीर्तन से मेरा आपके साथ सामीप्य भी सि( हो जाता है, क्योंकि संकीर्तन भी तभी हो सकता है जबकि कोई देवता की मूखत समीप में हो, अत: संकीर्तन में मुझे आपका सामीप्य सुलभ हो जाता है, तथा शिवभत्तिफ में अग्रणी जनता की संगति तथा सम्भाषण से मुझे सालोक्य भी सुलभ है क्योंकि जिस समय में शिवभत्तफों की संगति से आपका सालोक्य भी मेरे लिए सहज में मिल जाता है। हे भवानिपते! आपका यह जो चित् अचित् स्वरूपवाला अर्थात् स्थावरजात्मक चराचर रूप वाला यह जो विराट् स्वरूप है, इसकि निरन्तर यान से मुझे ‘सायुज्य’ भी अनायास ही प्राप्त हो जाता है, अर्थात् जब मैं आपके विराट् स्वरूप का यान करता हूँ, तो मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मैं आपके ही इस लीला विग्रह रूप विराट् स्वरूप में लीन हूँ, अर्थात् पिफर मेरी अलग से कोई स्थिति नहीं है, अत: केवल आपके यानमात्रा से ही मुझे परमपुरुषार्थ रूप ‘सायुज्य’ भी प्राप्त हो जाता है। हे स्वामिन्! इस प्रकार मैं अपने को कृतार्थ समझता हूँ।
वैष्णवों के वेदान्त ग्रन्थों में भी यही बतलाया गया है, कि ईश्वरानुग्रह से भत्तफ को मोक्ष प्राप्त होता है, जिसका स्वरूप है उस आनन्दात्मक दिव्य लोक का भोग, यही परममोक्ष माना जाता है यह भी चार प्रकार का होता है, सारूप्य, सामीप्य, सालोक्य और सायुज्य। संक्षेप में इनका अर्थ इस प्रकार है–
1.भगवद्रूपता प्राप्ति:– सारूप्यम् अर्थात् पूजा आदि द्वारा परमाभत्तिफ से तद्रूपता होना।
2.भगवद् समीपे स्थिति:– सामीप्यम्, अर्थात् कीर्तन भजनादि से प्राप्त अनुग्रह से उनके समीप में रहना।
3.भगवल्लोके निवास:– सालोक्यम्, अर्थात् सन्त समागम द्वारा प्राप्त अनुग्रह से उनके लोक में निवास करना।
4.भगवद् विग्रह के विलय:– सायुज्यम, अर्थात् निरन्तर भगवद् यान से प्राप्त परमभत्तिफ के द्वारा भगवान् के स्वरूप में ही लीन होना।
यह ‘सायुज्य’ ही परमपुरुषार्थ माना जाता है, जहाँ भत्तफ को समग्र दिव्य आनन्दों का अनुभव होता है।
त्वत्पादाम्बुजमर्चयामि परमं त्वां चिन्तयाम्यन्वहं
त्वामीशं शरणं व्रजामि वचसा त्वामेव याचे विभो।
वीक्षां मे दिश चाक्षुषीं सकरुणां दिव्येशिचरं प्राखथतां
शंभो लोकगुरो मदीयमनस: सौख्योपदेशं कुरु।।29।।
हे शम्भो! मैं हमेशा आपके चरणकमलों का पूजन करता हूँ, और प्रतिदिन परात्पर स्वरूप आपका ही यान करता हूँ। संसार के स्वामी, आपकी ही शरण में जाता हूँ। हे विभो! वाणी से भी केवल आपसे हीं याचना करता हूँ। हे शम्भो! देवता लोग भी जिसके लिए हमेशा ललायित रहते हैं, ऐसी करुणापूर्ण, आपकी दिव्य दृष्टि प्रदान करें। हे लोकगुरो! मेरे मन के लिए परमसुखप्रद उपदेश कीजिए।
वस्तो(ूतविधै सहकरता पुष्पार्चने विष्णुता
गन्ध्े गन्ध्वहात्मतापचने बखहमुर्खायक्षता।
पात्रो कानगर्भतास्ति मयि चेद्वालेन्दुचूडामणे
शुश्रूषां करवाणि ते पशुपते स्वामलिोकीगुरो।।30।।
हे चन्द्रशेखर! मेरे विषय में यदि आप वस्त्राच्छादन में सूर्य के समान, पुष्पार्चन में विष्णु के समान, गन्ध् में वायु के समान, अ को पचाने में अग्नि के समान, पात्रा में सुवर्णमय पात्राों के समान हैं, तो पिफर हे पशुपते! हे स्वामिन्! हे त्रिालोकभुरो! मैं आपकी सेवा करता हूँ। अर्थात् जैसे तत्तत् पदाथो के प्रदान या विद्यमानता में, तत्तत् देवताओं की प्रसता रहती है, वैसी प्रसता यदि आपकी भी मेरे ऊपर है, पिफर तो कहना ही क्या है, मैं निरन्तर आपकी सेवा करूँगा।
नालं वा परमोपकारकमिदं त्वेकं पशूनां पते
पश्यन्कुक्षिगतांश्चराचरगणान् बाह्यस्थितान्रक्षितुम्।
सर्वामत्र्यपलायनौषध्मतिज्वालाकरं भीकरं
निक्षिप्तं गरलं गले न गिलितं नोद्गीर्णमेव त्वया।।31।।
हे पशुपते! समुद्र मन्थन से जब पहली बार गरल–विष निकला, तो इसे आपने संसार के लिए अत्यन्त हितकर नहीं समझा, अत: कुक्षिस्थ चराचर जगत्, तथा बाह्य जगत् की, रक्षा के लिए तथा देवताओं के लिए अहितकर ज्वाला स्वरूप अर्थात् संसार को भी भस्म कर देने वाले अति भयानक इस गरल को अपने गले में रख लिया, न तो अभी तक आपने उसे निगला और न ही उद्वसन ही किया।
ज्वालोग्र: सकलामरातिभयद: क्ष्वेल: कथं वा त्वया
दृष्ट: क च करे ध्ृत: करतले क पक्वजम्बूपफलम्।
जिायां निहितश्च सि(घुटिका वा कण्ठदेशे भृत:
क ते नीलमणिखवभूषणमयं शंभो महात्मन्वद।।32।।
हे शम्भो! हे महात्मन्! यह तो बतलाइए, कि ज्वाला की तरह तीक्ष्ण और सभी देवताओं को भयभीत कराने वाले समुद्रमन्थन से, सर्वप्रथम निकले हुए उस गरल को, आपने किस तरह देखा? क्या पहिले हाथ से उठा लिया, पिफर हथेली में रखकर उसको पके हुए जामुन के पफल के समान आपने समझा, अथवा सि( गिुटिका ;सि( रसायनद्ध समझकर, आपने उसे जीभ में रख लिया, या नीलमणि का आभूषण समझकर गले में बाँध् लिया?
नालं वा सकृदेव देव भवत: नतिर्वा नुति:
पूजा वा स्मरणं कथाश्रवणमप्यालोकनं मादृशाम्।
स्वामिस्थिरदेवतानुसरणायासेन क लभ्यते
का वा मुत्तिफरित: कुतो भवति चेत्क प्रार्थनीयं तदा।।33।।
हे महादेव! मेरे जैसे लोग तो आपके लिए, एक बार भी सेवा, नमस्कार, स्तुति, पूजा, स्मरण व कथा श्रवण तथा दर्शन भी, अच्छी तरह नहीं करते हैं। हे स्वामिन् पिफर अन्य किसी देवता के सेवा से क्या प्राप्त होगा? यदि आप यह समझते हैं कि इस तरह की सेवा से कौन सी मुत्तिफ होगी, तो पिफर यह बतलाइए कि हमें किस वस्तु की प्रार्थना करनी चाहिए, या किस तरह प्रार्थना करनी चाहिए।
क ब्रूमस्तव साहसं पशुपते कस्यास्ति शंभो भव
(ैय चेदृशमात्मन: स्थितिरियं चान्यै: कथं लभ्यते।
भ्रश्यद्देवगणं त्रासन्मुनिगणं नश्यत्प्रपचं लयं
पश्यर्भिय एक एव विहरत्यानन्दसान्द्रो भवान्।।34।।
हे पशुपते! आपके साहस के विषय में हम क्या कहें? हे शम्भो! आपके समान ध्ैर्यशाली अन्य कौन देवता है। अन्य देवताओं के द्वारा इस प्रकार की आत्मा की निश्चलात्मक स्थिति कैसे प्राप्त हो सकती है? क्योंकि प्रलय काल में जिस समय देवताओं का ध्ैर्य डिग जाता है, ऐसे महा भयंकर प्रलय काल को भी, निर्भयतापूर्वक अकेले देखते हुए, आप आनन्दध्नरूप में स्थित होकर विहरण करते हैं।
योगक्षेमध्ुरंारस्य सकलश्रेय: प्रदोद्योगिनो
दृादृमतोपदेशकृतिनो बाह्यान्तरव्यापिन:।
सर्वस्य दयाकरस्य भवत: क वेदितव्यं मया
शंभो त्वं परमान्तर इति मे चित्ते स्मराम्यन्वहम्।।35।।
हे शम्भो! आप प्राणिमात्रा के योग क्षेम में, अर्थात् अप्राप्य वस्तु की प्राप्ति कराने में, और प्राप्त वस्तु की सुरक्षा कराने में, अथवा संसार यात्रा के निर्वाह में, सर्वथा समर्थ हो, और सम्पूर्ण कल्याणों को प्रदान करने में तत्पर हो, इस लोक तथा परलोक के उपयुत्तफ सि(ान्तों के उपदेश में भी कुशल हो। आप सभी के अन्दर और परलोक के उपयुत्तफ सि(ान्तों के उपदेश में भी कुशल हो। आप सभी के अन्दर और बाहर व्याप्त हैं। ऐसे सर्वज्ञ तथा दया के सागर आपके विषय में, जानने योग्य कोई भी बात बाकी नहीं है। हे शम्भो! मेरा तो बस इतना ही कहना है, कि आप मेरे परम अन्तरंग हैं, अतएव मैं अपने चित्त में हमेशा आपका ही स्मरण करता हूँ।
भत्तफो भत्तिफगुणावृते मुदमृतापूणेर् प्रसे मन:
कुम्भे साम्ब तवा्घ्रिपवयुगं संवित्पफलम्।
सत्त्वं मन्त्रामुदीरयजिशरीरागारशुद वह
न्पुण्याहं प्रकटीकरोमि रुचिरं कल्याणमापादयन्।।36।।
हे अम्बा–पर्वती सहित शिव! आपकी भत्तिफ में निरन्तर दत्तचित मैं भत्तिफरूपी गुण–सूत्रा से वेष्टित, हर्षरूप अमृत से परिपूर्ण स्वच्छ, मनरूपी कलश में आपके चरणरूपी पल्लवों तथा ज्ञानरूपी श्रीपफल को रखकर सत्त्वगुणजन्य स्वच्छता रूपी मन्त्राों का उच्चारण करता हुआ, अपने शरीर रूपी गृह को पवित्रा करता हूँ। इस प्रकार प्रात:काल से लेकर सायं काल तक इन कल्याणकारक तथा शान्तिदायक शुभ परम्पराओं का सम्पादन करता हुआ, सारे दिन की सुन्दर पवित्राता को प्रकट करता हूँ।
कोई भी सनातन धर्मावलम्बी भत्तफ यदि अपने घर में विवाहादि कोई शुभ कार्य करता है, तो उसे भी सर्वप्रथम सर्वारम्भ पूजन अवश्य करना पड़ता है, जिसमें गणेश–पूजन, मातृकापूजन व आम्भदयिक श्रा( के बाद पुण्याहवाचन तथा कलशस्थापनादि अवश्य करना होता है, प्रस्तुत स्तोत्रा में भत्तफ ने भी भगवदर्चन के विषय में कलश स्थापन व पुण्याहवाचन की चर्चा रूपकालार द्वारा प्रस्तुत की है, जिसमें बाह्य सामग्री के अभाव में भत्तफ ने अपने मन को ही सुन्दर कलश बनाया है, भत्तिफ को सूत्रा कलावार, हर्षामृत को गाजल, भगवान् के पवित्रा पादों को पल्लव, तथा भगवद् विषयक ज्ञान को ही श्रीपफल माना है, इस प्रकार की पवित्रा सामग्री से भत्तफ अपनी दिनचर्या को प्रकाशित कर रहा है। यह सब एक प्रकार से कर्मकाण्ड की दृष्टि से पुण्याह वाचन भी हो जाता है, जिसका स्वरुप इस प्रकार है– यजमान अपने शुभ कार्य की सपफलता तथा अपनी समृ(ता के लिए ब्राणों से प्रार्थना करता है कि हे ब्राणों! मेरा आज का यह दिन पवित्रा हो, ऐसा आप मेरे घर में बोले, और मेरा कल्याण हो ऐसा भी बोलें–‘भो ब्राणा:? मम गृहे पुण्याहम् भवन्तो ब्रुवन्तु,’ भो ब्राणा:? मम गृहे कल्याणं भवन्तो ब्रुवन्तु इत्यादि। तब ब्राण आशीर्वाद के रूप में कहते हैं पुण्याहम्, पुण्याहम्, कल्याणम् कल्याणम् कल्याणम् इत्यादि।
आम्नायाम्बुध्मिादरेण सुमन:संघा: समुद्यन्मनो
मन्थानं दृढभत्तिफरज्जुसहितं कृत्वा मयित्वा तत:।
सोमं कल्पतरुं सुपर्वसुरभ चिन्तामणि ध्ीमतां
नित्यानन्दसुधं निरन्तररमासोभाग्यमातन्वते।।37।।
हे शम्भो! सन्तरूपी देवसंघ अपने मन को ही मथनी बनाकर, और दृढ़भत्तिफ को डोरी बनाकर, वैदिक वामयरूपी समुद्र का बडे़ आदर से मन्थन कर, उससे शीतलता प्रदान करने वाले चन्द्रमा को कामध्ेनु को, चिन्तामणि को, तथा बुि(मानों को नित्य आनन्द देने वाली सुध ;शास्त्राार्थ चर्चाद्ध को, तथा निरन्तर सौख्य प्रदान करने वाली लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं।
प्रक्पुण्याचलमार्गदशतसुधमूखत: प्रस: शिव:
सोम: सद्गणसेवितो मृगधर: पूर्णस्तमोमोचक:।
चेत: पुष्करलक्षितो भवति चेदानन्दपाथोनिधि:
प्रागल्भ्येन विजृम्भते सुमनसां वृत्तिस्तदा जायते।।38।।
हे शम्भो! यदि कहीं पूर्व जन्मों के किए हुए पुण्यों के प्रसाद से, अमृत तुल्य मूखत भगवान् शिव के दर्शन हो जायें, और वे प्रस हो जायें, सन्त रूपी सद्गुण सज्जनवृन्दों से सेवित ;या तारागणों से सेवितद्ध मृगध्र परिपूर्ण चन्द्र से उपलक्षित ज्ञानवान् अज्ञानान्ध्कार को दूर कर दे, तब अज्ञान के दूर होते ही हृदय की ग्रन्थियों के गलित होने पर, चित्त खिले हुए कमल के समान स्वच्छ व प्रस हो जाय, तो तभी आनन्दमय समुद्र की लहरें उमड़ सकती हैं, तदन्तर हीं कहीं विद्वानों या योगियों की धरणा ब्राकार हो सकती है।
ध्र्मो मे चतुर्घ्रिक: सुचरित: पापं विनाशं गतं
कामक्रोध्मदादयो विगलिता: काला: सुखाविष्कृता:।
ज्ञाननन्दमहौषधि्: सपुफलिता कैवल्यनाथे सदा
मान्ये मानसपुण्डरीकनगरे राजावतसे स्थिते।।39।।
हे शम्भो! मेरे मानस कमलरूपीनगर में राजचूडामणि के समान मान्य कैवल्य प्रदान करने वाले आपके विराजमान होने पर, चतुष्पाद अर्थात् सत्य दानादि चार चरण वाला, यह ध्र्म भी चरितार्थ हुआ, और सारा पाप नष्ट हुआ, काम क्रोधदि जो चित्त के दोष हैं, वे भी समाप्त हुए, सुख देने वाला समय उपस्थित हुआ, और आनन्दमहौषधि् की लतायें पल्लवित, पुष्पित तथा पफलित हुई।
ध्ीयन्त्रोण वचाघटेन कविताकुल्योपकुल्याक्रमे
रानीतैश्च सदाशिवस्य चरिताम्भोरशिदिव्यामृतै:।
हृत्केदारयुताश्च भत्तिफकलमा: सापफल्यमातन्वते
दुखभक्षान्मम सेवकस्य भगवन्विश्वेश भीति: कुत:।।40।।
हे भगवन्! जब बुि(रूपी घटीयन्त्रा ;रहटद्ध से, वचनरूपी घड़ों से, तथा कवितारूपी छोटी नहरों के द्वारा, उपस्थित भगवान् सदाशिव के चरितरूपी समुद्र से दिव्यामृत रूपी जल के सि न के द्वारा, हृदयरूपी खेत में उगे हुए भत्तिफरूपी धन, सपफल हो गये, अर्थात् अच्छी तरह पक गये, तो पिफर हे विश्वेश! मुझ जैसे सेवक के लिए दुखभक्ष अकाल से भय क्यों होगा, अर्थात् जैसे कोई कृषक अपने धान के खेत को सींचने के लिए मशीन रहट आदि लगाता है, उसमें घड़ों को जोड़ता है, तथा छोटी सी नहर के द्वारा उस पानी को धन के खेत में पहुँचाता है, इस प्रकार वह धन समय में पानी आदि की सुविध को प्राप्त कर, सुन्दर पफसल से पककर, किसान को प्रचुर मात्राा में प्राप्त होता है। अब इस किसान को अकाल का कोई भय नहीं होता है, क्योंकि उत्तफ साध्नों द्वारा उपाखजत धन्य राशि कृषक के घर में विद्यमान है, इसी प्रकार किसी भत्तफ का कहना है कि हे भगवन्! मैंने बुि( विद्या तथा कविता के द्वारा आपके चरित रूपी दिव्यामृत को परिपुष्ट कर लिया है, अब चाहे अकाल, काल या महाकाल भी आये, तो मेरा क्या बिगाड़ सकते हैं, कुछ भी नहीं, क्योंकि मैं तो आपके चरितामृत वर्णन या संकीर्तन रूपी भत्तिफरस से आप्लावित हूँ।
पापोत्पातविमोचनाय रुचिरेश्वर्याय मृत्यंजय
स्तोत्रायाननतिप्रदक्षिणसपर्यालोकनाकर्णने।
चिाचित्तशिरो्घ्रिहस्तनयनश्रोत्रौरहं प्राखथतो
मामाज्ञापय तरिूपय मुहूर्मामेव मा मेवच:।।41।।
हे मृत्यु य! पापों से उत्प उपद्रवों के विनाश के लिए, और सुन्दर ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए, स्तुति यान, नमस्कार, प्रदक्षिणा, पूजा, दर्शन व प्रभु विषयक पवित्रा पदों के आकर्षण के विषय में क्रमश: जिा, चित्त, शिर, चरण, हस्त, नयन व श्रोत्रा ये इन्द्रियाँ मुझसे निवेदन कर रही है, कि हम पूर्वोत्तफ अपना अपना स्तुति, यानादि व्यापार करें, अत: आप इसके लिए मुझे आज्ञा दें, और पहिले मुझे ही अपना रूप दिखलाईए। इस विषय में आप चुप न रहें।
गाम्भीय परिखापदं घनघृति: प्रकार उद्यद्गुण
स्तोमश्चाप्तबलं घनेन्यिचयो द्वाराणि देहे स्थित:।
विद्या वस्तुसमृिरित्यखिलसामग्रीसमेते सदा
दुर्गातिप्रियदेव मामकमनोदुगेर् निवासं कुरु।।42।।
हे भवानी प्रिय शर! विद्या–वस्तु–समृि( आदि सम्पूर्ण सामग्री से परिपूर्ण, मेरे मन रूपी दुर्ग किले में आप निवास करें, क्योंकि इस किले की आन्तरिक समृि( के साथ–साथ बाह्य उपकरण भी विद्यमान हैं, मेरे शरीर में स्थित जो गम्भीरता है, वही इस मनरूपी दुर्ग की खाई है, जिसके भय से कामक्रोधदि शत्राु उस किले में एकाएक आक्रमण नहीं कर सकते हैं, विशाल ध्ैर्य ही इसका प्रकार–परकोटा है, और उदीयमान गण समुदाय हीं इसका विश्वसनीय बल सेना समुदाय है। इसमें स्थित जो इन्द्रिय समुदाय है, वही इसके द्वार है। अत: इस प्रकार से सुरक्षित तथा सुसज्जित, इस मनोदुर्ग में, आप निवास करें, चूँकि आप दुर्गातिप्रिय देव हैं, दुर्ग है अति प्रिय जिनको ऐसे देव महादेव हैं, इसलिए दुर्ग पसन्द करने वाले को मनोदुर्ग में ही रहना उचित है, अथवा दुर्गा भवानी के अतिप्रिय होने से भी, मनो दुर्ग में रहना कोई अनुचित नहीं है।
मा गच्छ त्वमितस्ततो गिरिश भो मय्येव वासं कुरु
स्वामिादिकिरात मामकमन:कान्तारसीमान्तरे।
वर्तन्ते बहुशो मृगा मदजुषो यात्सर्यमोहादय
स्तान्हत्वा मृगयाविनोदरुचितालाभं च संप्राप्स्यसि।।43।।
हे गिरिश! आप इध्र उध्र न जायें, हे स्वामिन्! आप मेरे में ही निवास करें, अर्थात् मेरे अन्त:करण में हमेशा विराजमान रहें। हे आदिकिरात! आप मेरे मन रूप वन की सीमा में ही विचरण करें, क्योंकि इसमें मदमस्त,मात्सर्य–राग, मोहादि बहुत से मृग हैं, उन मृगों का वध् करें, आप किरात हैं, इसीलिए मृगया विनोद की उचित रुचि का लाभ लें।
करलग्नमृग: करीन्भो
ध्नशादूर्लविखण्डनोस्तजन्तु:।
गिरिशो विशदाकृतिश्च चेत:
कुहरे पमुखोस्ति मे कुतो भी:।।44।।
इस आदि किरातरूपी शिव के हाथ में, कभी मात्सर्य रूपी मृग आ जाता है, तो पिफर कभी ये मोहरूपी हस्ती का भी वध् कर देते हैं, कभी–कभी तो क्रोधदि रूप विशाल शाईल को भी ये पछाड़ देते हैं। इस प्रकार मेरा अन्त:करण रूपी वन इन मोहादिमृगों से शून्य हो गया है, विशु( आकृति वाले पचानन ये शिव, जब हमेशा मेरे चित्तरूपी गुहा में निवास करते हैं, तो फिर मुझे भय किससे?।
छन्द:शाखिशिखान्वितैखद्वजवरै: संसेविते शाश्वते,
सौख्यापादिनि खेतभेदिनि सुधसरै: पफलैर्दीपिते।
चेत:पक्षिशिखामणे त्यज वृथासंचारमन्यैरलं
नित्यं शरपादपयुगलीनीडे विहारं कुरु।।45।।
हे चित्तरूपीपक्षिशिरोमणि? तुम इस सांसारिक वन के वृथा सचार को छोड़ो, अन्य किसी वृक्ष की, अथवा जंगल की भी आशा मत करो, तुम तो केवल, वेद वृक्षों के पल्लवों से समन्वित, ब्राणादियों से सेवित शाश्वत–सौख्य–निरतिशय सुखों को देने वाले, त्रिाविधताप को नष्ट करने वाले, तथा अमृत के समान धर्मार्थ काम व मोक्ष रूप फलों से प्रकाशित भगवान् शर के चरणकमलों के घोंसले में नित्य विहार करो।
अकीणेर् नखराजिकान्तिविभवैरुद्यत्सुधवैभवे
राधैतेपि च परागललिते हंसव्रजैराश्रिते।
नित्यं भत्तिफवध्ूगणैश्च रहसिस्वेच्छा विहारं कुरु
स्थित्वा मानसराजहंस गिरिजानाथ्घ्रिसौधन्तरै।।46।।
हे मेरे मनरूपी राजहंस? निर्मल नखों की कान्ति से सम्प, सुन्दर सपफेदी से प्रक्षालित, और पद्मरागमणियों से रमणीय, हंस या परमहंस समुदाय से आश्रित, पार्वतीपति के चरणरूपी महल के अन्दर निवास कर, एकान्त में हमेशा भत्तिफरूपी वध्ुओं के साथ स्वेच्छा विहार करो।
शंभुयानवसन्तसिनि हृदारामेघजीर्णच्छदा:
स्ता भत्तिफलताच्छटा विलसिता: पुण्यप्रवालश्रिता:।
दीप्यन्ते गुणकोरका जपवच: पुष्पाणि सद्वासना
गानानन्दसुधमरन्दलहरी संवित्पफलाभ्युति:।।47।।
हे मेरे मानसराजहंस! तुम भगवान् शर के यानरूपी वसन्त से युत्तफ, इस हृदयरूपी उद्यान में, स्वच्छन्दता पूर्वक विहार करो। देखो, इस उद्यान के जो पापरूपी जीर्ण पत्ते हैं, वे अब गिर चुके हैं, पुण्यरूपी पत्तों से ;नवकिशलयों सेद्ध युत्तफ, यह सुन्दर भत्तिफ लता पफैली हुई है, और यहाँ भगवाम् रूपी जप के शब्दरूपी कलिकायें भी उग चुकी है, और सद्वासनारूपी पुष्प सुशोभित हो रहे हैं, तथा ज्ञान व आनन्द रूपी सुधरस की लहरों वाले संवित्पफल, अर्थात् परम पुरुषार्थरूप मोक्ष पफल भी, ऊपर दिखाई दे रहे हैं, इसलिए इस अभ्युदय तथा नि:श्रेयस की सुन्दर वाटिका में परिभ्रमण करो।
नित्यानन्दरसालयं सुरमुनिस्वान्ताम्बुजाताश्रयं
स्वच्छं सद्द्विजसेवितं कलुषहृत्सद्वासनाविष्कृतम्।
शंभुयानसरोवरं व्रज मनोहंसावतंस स्थिरं
क क्षुाश्रयपल्लवभ्रमणसंजातश्रमं प्राप्स्यसि।।48।।
हे मनरूपी श्रेष्ठहंस! अथवा श्रेष्ठ मानस मराल! तुम तो हमेशा आनन्दरूपी जल से भरे हुए, और देवता व मुनिवृन्द के अन्त:करणरूपी कलियों के एकमात्रा आश्रम, स्वच्छ, सुन्दर शुक पिक कोकिलादि पक्षियों से सेवित, अथवा सत्यानुष्ठान परायण ब्राणों द्वारा सेवित, वहाँ हृदय का कालुष्य ध्ुल जाता है, और सुन्दर वासनाओं या विचारों का उदय होता है, ऐसे शाश्वत शम्भु यान रूपी सरोवर की ओर चलो।
क्या तुम क्षुद्र कीचड युत्तफ तलाबों के परिभ्रमण के परिश्रम को प्राप्त करोगे? अर्थात् भगवान् शर के यान रूप मान सरोवर को छोड़कर क्या सांसारिकविषयरूप कीचड़ से सने हुए किसी छोटी तल्लैया को ढूँढ रहे हो क्या? इस प्रकार का तुम्हारा परिश्रम व्यर्थ है।
आनन्दामृतपूरिता हरपदाम्भोजालवालोद्यता
स्थैपनमुपेत्य भत्तिफलतिका शाखोपशाखान्विता।
उच्ैर्मानसकायमानपटलीमाक्रम्य निष्कल्मषा
नित्याभीपफलप्रदा भवतु में सत्कर्मसंवखध्ता।।49।।
यह शम्भु भत्तिफ लतिका आनन्दरूपी अमृत से परिपूर्ण है, तथा भगवान् शर के चरण कमलरूप आलवाल में उगी है। अतएव यह अत्यन्त स्थिर है, मन तथा शरीर के अहंकार पटल का विध्वंस करने वाली है, और शाखा व प्रशाखाओं में पफैली हुई है, सत्कमो से बढ़ाई गई यह लता निर्दोष तथा पवित्रा है। इस प्रकार की यह शम्भु भत्तिफ लतिका मुझे नित्य अभीष्ट पफलों को प्रदान करें।
संयारम्भविजूम्भितं श्रुतिशिर:स्थानान्तरधिश्तिं
सप्रेमभ्रमराभिराममसकृत्सद्वासनाशोभितम्
भोगीनभरणं समस्तसुमन: पूज्यं गुणाविष्कृतं
सेवे श्रीगिरिमकिाजुर्नमहालि शिवालितिम्।।50।।
;मैंद्ध संयाकाल में विशेष श्रृंगार से सुन्दर, वेद बोध्ति जो पवित्रा स्थान हैं, उसमें अध्शि्ति, प्रेम रूप भ्रमर से सुशोभित, और निरन्तर सद्वासनाओं से अल्कृत सर्पराज वासुकि को धरण किए हुए, समस्त पुष्पों से पूजनीय, सुन्दर गुणों से प्रकट हुए, भवानी से आलिति, भगवान् श्री गिरिमल्लिकाजुर्न नामक महालि की सेवा करता हूँ।
भृंीच्छानटनोत्कट: करिमदग्राही स्पफुरन्माध्वा
ादो नादयुतो महासितवपु: पेषुणा चादृत:
सत्पक्ष: सुमनोवनेषु स पुन: साक्षान्मदीये मनो
राजीवे भ्रमराध्पिो विहरतां श्रीशैलवासी विभु:।।51।।
वही पूर्वोत्तफ गिरिमल्लिकाजुर्न नामक भ्रमरसम्राट रूपी श्रीशैलवासी भगवान् शर, नृत्य करते हुए, एक बार पिफर मेरे हृदय कमल में विहार करें, अन्य विशेषणों द्वारा उसी नृत्यावस्था का प्रदर्शन कर रहे हैं, भत्तफवत्सल ये भगवान्, जब भृी आदि सेवकों की नृत्य देखने की इच्छा होती है, तो तभी नाच लेते हैं, इस प्रकार भृी की इच्छानुसार जो नृत्य–नर्तन उससे उग्र रूप वाले हैं, हाथी के मद को ग्रहण करने वाले, करिमद को इसलिए ग्रहण करना है, चूँकि शर भगवान् का उ(त ताण्डव नृत्य होता है, इस प्रकार के भूतभावन भगवान् के नृत्य से ;माध्वद्ध विष्णु भी प्रस रहते हैं,ढा आदि वाद्यों के नाद से युत्तफ, सारे शरीर में भस्मी रमाये हुए, सज्जनों या सन्तों के पक्ष को धरण करने वाले, देववन में कामदेव के द्वारा सम्मानित, ये भगवान् साक्षात् मेरे हृदय कमल में विहार करें, अर्थात् मैं इनका निरन्तर यान करता रहूँ।
कारुण्यामृतवखषणं ध्नविपद्भीष्मच्छिदाकर्मठं
विद्यास्यपफलोदयाय सुमन: संसेव्यमिच्छाकृतिम्।
नृत्यत्तफमयूमिनिलयं पज्जटामण्डलं
शंभो वाछति नीलकंध्र सदा त्वां मे मनातक:।।52।।
हे शम्भो! हे नीलकन्ध्र! आप करुणा–दया–रूपी अमृत की वर्षा करने वाले हैं, महाविपत्तियों को दूर करने में कुशल हैं, विद्यारूपी वनस्पति सस्य के पफलोदय के लिए सन्तों द्वारा सेवनीय हैं, भत्तफों की इच्छानुसार रूप को धरण करने वाले हैं, नाचते हुए मनरूपी मयूर के लिए आप पर्वत स्वरूप हैं, अर्थात् मयूर जिस प्रकार पर्वत व शाखा का अवलम्बन कर मेघ को देखते ही नाचता है, उसी प्रकार भत्तफ भी आपका अवलम्बन लेकर या आपके नीलकन्ध्र को देखकर प्रसता से नाचता है। इस प्रकार जटामण्डलों से सुशोभित आपको हमेशा मेरा मनरूपी चातक चाहता है।
आकाशेन शिखी समस्तपफणिनां नेत्राा कलापी नता
नुग्राहिप्रणवोपदेशनिनदै: केकीति यो गीयते।
श्यामां शैलसमुवां घनरुच दृष्टा नटन्तं मुदा
वेदान्तोपवने विहाररसिकं तं नीलकण्ठं भजे।।53।।
जिस प्रकार उपवन में स्थित मयूर, पर्वतों से उठने वाली काली घन घटाओं से व्याप्त आकाश को देखकर, हर्ष से ओंकार की तरह निम्नोत वनि के द्वारा शिखावाला, कलाप पंख वाला, होता हुआ भी केकी अर्थात् केका मध्ुर व सान्द्र वनि युत्तफ होकर नाचता रहता है, इसी प्रकार भगवान् शिव भी, वेदान्तरुपी उपवन में शैलसुता सौन्दर्यशिरोमणि श्यामा पार्वती को देखकर नाचते हैं, ऐसे विहाररसिक नीलकण्ठ ;शिवद्ध का मैं यान करता हूँ।
संया ध्र्मदिनात्ययो हरिकराघातप्रभृतानक
वानो वारिदगखजतं दिविषदां दृष्च्छिटा चला।
भत्तफानां परितोषवाष्पविततिवृर्ष्टिर्मयूरी शिवा
यस्मिुज्जवलताण्डवं विजयते तं नीलकण्ठं भजे।।54।।
जिस वर्षाकाल के उज्वलताण्डव का संयाकाल ही ग्रीष्म)तु की अवसान बेला है, अर्थात् वर्षाकाल है, और हरि सूर्य या सेवकगणों के कर किरण या हाथों से बजाये गये नगाडे़ की वनि ही मेघ गर्जन है, देवी देवताओं की दृष्टि ही जहाँ बिजली है, और भत्तफजनों के आनन्दाश्रु ही विशाल वृष्टि है, स्वयं शिवा पार्वती ही जिसमें मयूरी की तरह आनन्दित है। इस प्रकार के वातावरण में, यह उत्कृष्ट ताण्डवनृत्य जिसका है, उसी नीलकण्ठ की मैं आराध्ना करता हूँ।
आद्यायामिततेजसे श्रुतिपदैवेर्द्याय सायाय ते
विद्यानन्दमयात्मने त्रिाजगत: संरक्षणोद्योगिने।
येयायाखिलयोगिभि: सुरगणैगेर्याय मायाविने
सम्यक्ताण्डवसंभ्रमाय जटिने सेयं नति: शंभवे।।55।।
जो भगवान् शर सबसे आदि हैं, और अपरिमित तेज वाले हैं, वैदिक पदों से जिनका ज्ञान होता है, अर्थात् वेद भी जिनका व्याख्यान करते हैं, जो सभी प्राणियों के प्राप्य हैं, या साय हैं, जिनका स्वरूप विद्यानन्दमय है, तीनों लोकों की रक्षा में जो तत्पर है। समस्तयोगिसमुदाय जिनका यान करता है, देवगण जिनका गान करते हैं, जो ताण्डव नृत्य में व्यग्र है, ऐसे जटाधरी शम्भु को मैं प्रणाम करता हूँ।
नित्याय त्रिागुणात्मने पुरजिते कात्यायनीश्रेयसे
सत्यायादिकुटुम्बिने मुनिमन: प्रत्यक्षचिन्मूर्तये
मायासृष्टजगत्रायाय सकलाम्नायान्तसंचारिणे
सायंताण्डवसंभ्रामाय जाटने सेयं नति: शंभवे।।56।।
जो भगवान् शर नित्य हैं, सत्व रज व तमोगुण रूप हैं, जिन्होने त्रिापुर को जीता है, और कात्यायनी माता के परम कल्याण कारक हैं, जो भगवान् मुनियों के मनों में प्रत्यक्ष चिद्रूप हैं, तथा सत्व रज व तमो गुणात्मिका माया से जिन्होंने तीनों लोकों की सृष्टि की है, समस्त वैदिक वामय जिनकी व्याख्या करता है,और हमेशा सायंकाल ताण्डव नृत्य के लिए जो उद्यत रहते हैं, जटाधरी ऐसे भगवान् शम्भु को मेरा प्रणाम है।
नित्यं स्वोदरपूरणाय सकलानुद्दिश्य वित्ताशया
व्यथ पर्यटनं करोमि भवत: सेवां न जाने विभो।
मज्जन्मान्तरपुण्यपाकबलतस्त्वं शव सर्वान्तर
स्तिस्येव हि तेन वा पशुपते ते रक्षणीयोस्म्यहम्।।57।।
हे प्रभो! मैं अपने उदरपूखत के निमित्त व ध्न की लालसा से, सभी ध्निकों के दरवाजे व्यर्थ भ्रमण करता हूँ। परन्तु आपकी सेवा–भजनादि नहीं जानता हूँ। पिफर भी मेरे जन्मान्तर के पुण्यों के परिणाम से, आप सर्वत्रा सभी प्राणियों के अन्त:करण में हो। इसलिए हे पशुपते! मैंसर्वथा आपसे रक्षणीय हूँ। अर्थात् मेरी रक्षा करो।
एको वारिजबान्ध्व: क्षितिनभोव्यप्तं तमोमण्डलं
भित्त्वा लोचनगोचरोपि भवति त्वं कोटिसूर्यप्रभ:।
वेद्य: क न भस्यहो घनतरं कीदृग्भवेन्मत्तम
स्तत्सव व्यपनीय मे पशुपते साक्षात्प्रसो भव।।58।।
हे प्रभो! अकेला सूर्य पृथिवी व आकाश के अन्ध्कार समुदाय का भेदन कर, लोगों के दृि पथ में आता है, आश्चर्य हैै कि, आप तो करोड़ों सूयो की प्रभा के समान हैं, पिफर भी दृष्टिगोचर क्यों नहीं होते हो? हो सकता है, उस पाखथव और क्षितिज अन्ध्कार की अपेक्षा मेरा यह अन्त:करण में स्थित अज्ञानान्ध्कार कहीं बड़ा हो। अत: हे पशुपते! मेरी यही प्रार्थना है, कि इस घने अज्ञानान्ध्कार को दूर कर, आप मेरे लिए प्रस रहें।
हंस: पवनं समिच्छति यथा नीलाम्बुदं चातक:
कोक: कोकनदप्रियं प्रतिदिनं चन्ं चकोरस्तथा।
चेतो वछति मामकं पशुपते चिन्मार्गमृग्यं विभो
गौरीनाथ भवत्वदाब्जयुगलं कैवल्यसौख्यप्रदम्।।59।।
हे विभो! जिस प्रकार हंस कमलवन की इच्छा करता है, चातक नीलमेघों की इच्छा करता है, कोक चकवा सूर्य की इच्छा करता है, चकोर चन्द्र की इच्छा करता है, हे पशुपते! हे गौरीनाथ! उसी प्रकार मेरा मन भी आयात्मिक ज्योति द्वारा ही प्राप्य, मोक्षरूप सौख्य को प्रदान करने वाले आपके चरण कमलों को ही चाहता है।
रोध्स्तोयहृत: श्रमेण पथिकश्छायां तरोवृर्तिो
भीत: स्वस्थगृहं गृहस्थमतिथिर्दीन: प्रभुं धखमकम्।
दीपं संतमसाकुलश्च शिखिनं शीतावृतस्त्वं तथा
चेत: सर्वभयापहं व्रज सुखं शंभो: दाम्भोरुहम्।।60।।
किसी नदी के तट के जल से भयभीत पथि जैसे वारिश से बचने के लिए किसी छायेदार वृक्ष का आश्रय लेता है, और दीन अतिथि जैसे ;सायंकालद्ध किसी गृहस्थ धखमक के घर का आश्रय लेता है, और सायंकाल शीत से पीडित कोई व्यत्तिफ जैसे प्रदीप्त अग्नि के पास जाता है, उसी प्रकार हे मेरे मन! तू भी सभी प्रकार के भयों को दूर करने वाले भगवान् शर के चरणकमलों में बडे़ आराम से चल दे।
ओलं निजबीजसंततिरयस्कान्तोपलं सूचिका
सावी नैजविभुं लता क्षितिरुहं सिन्ध्ु: सरिद्वल्लभम्।
प्राप्नोतीह यथा तथा पशुपते: पदारविन्दद्वयं
चेतोवृत्तिरुपेत्य तिष्ठांत सदा सा भत्तिफरित्युच्यते।।61।।
इस संसार में जिस प्रकार बीज परम्परा ;ओल आदिद्ध वृक्ष को प्राप्त करती है, लौह–सूचिका अयस्कान्त मणि को प्राप्त करती है, सती–सावी स्त्राी अपने पति को प्राप्त करती है, नदी सागर को प्राप्त करती है, उसी प्रकार यदि मेरी चित्तवृत्ति भी, भगवान् शर के चरणारविन्द को हमेशा प्राप्त करती रहे, तो इसी का नाम भत्तिफ है।
आनन्दश्रुभिरातनोति पुलकं नैर्मल्यतश्छादनं
वाचाशमुखे स्थितै जठरापूखत चरित्राामृतै:।
रुाक्षैभंसितेन देव वपुषो रक्षां भवावना
पयके विनिवेश्य भत्तिफजननी भत्तफार्भकं रक्षति।।62।।
भत्तिफ रूपी जननी भत्तफ रूप बालक को, अपने आनन्दाश्रुओं से पुलकित करती है, निर्मलता से उसका आच्छादन करती है, शंखवीणादि वनियुत्तफ मुख में स्थित, भगवच्चरित्रामृतों से भत्तफ बालक की उदर पूखत करती है, भगवान् के शरीर में संलग्न होने से अतएव ध्ूसरित रुद्राक्षों से भत्तफ की रक्षा करती है, इस प्रकार भगवद् भावना रूपी पयक–शया में लिटा कर, भत्तिफ जननी भत्तफ बालक की रक्षा करती है।
मार्गावखततपादुका पशुपतेरस्य कूर्चायते
गण्डूषाम्बुनिषेचनं पुररिपोखदव्याभिषेकायते।
कचिक्षितमांसशेषकवलं नव्योपहारायते
भत्तिफ: क न करोत्यहो वनचरो भत्तफावतंसायते।।63।।
मार्ग से आवखतत पादुका ही जहाँ भगवान् के स्वच्छ करने की कूखचका झाडू है, भत्तफों का कुल्ला करना मात्रा जहाँ अभिषेक समझा जाता है, अपने आहार से बचा हुआ मांस का ग्रास ही जहाँ दिव्य उपहार समझा जाता है, यही आश्चर्य है, कि भत्तिफ से क्या क्या नहीं होता, जहाँ वनचर भी भत्तफ शिरोमणि बन जाता है।
वक्षस्ताडनमन्तकस्य कठिनापस्मारसंमर्दनं
भूभृत्पर्यटनं नमत्सुरशिर:कोटीरसंघर्षणम्।
कमेर्दं मृदुलस्य तावकपदद्वन्द्वस्य क वोचितं
मच्चेतोमणिपादुकाविहरणं शंभो सदाीकुरु।।64।।
हे शम्भो! आपका जो वक्षस्ताद्रन है, वह तो यमराज का भी कठिन अपस्मार रोग को नि:सरण है, और आपका जो पर्वतों में पर्यटन है, वह नमस्कार करते हुए देवताओं के मुकुटों का संघर्षण है, इस तरह इतने कोमल आपके चरणों का इतना कठिन यह कर्म उचित है, क्या? अत: आप हमेशा मेरे चित्तरूपी मणि के द्वारा निखमत पादुका से ही विहरण कीजिए।
वक्षस्ताडनशया विचलितो वैवस्वतो निर्जरा:
कोटीरोज्ज्वलरत्नदीपकलिकानीराजनं कुवते।
दृ्वा मुत्तिफवध्ूस्तनोति निभृताश्लेषं भवानीपते
यच्चेतस्तव पादपभजनं तस्येह क दुर्लभम्।।65।।
हे भवानीपते! वैवस्वत महाराज तो, आपके वक्षस्ताडन से ही विचलित हो गये, देवता लोग अपने मुकुट में रत्न रूपी कलिकाओं से आरती करने लगे। यह सब देखकर मुत्तिफरूपी वध्ू आपका गाढ आलिंगन करने लगी, हे भवानीपते! जिसका चित्त एकमात्रा आपके ही भजनपूजन में संलग्न है, उसके लिए यहाँ पिफर कौन सी चीज दुर्लभ है।
क्रीडाथ सृजतिस प्रपमखिलं क्रीडामृगास्ते जना
यत्कर्माचरितं मया च भवत: प्रीत्यै भवत्येव तत्।
शंभो स्वस्य कुतूहलस्य करणं मच्ेतिं नितिं
तस्मान्मामकरक्षणं पशुपते कर्तव्यमेव त्वया।।66।।
हे शम्भो! आप केवल अपनी क्रीडा के लिए ही इस सम्पूर्ण प्रप की रचना करते हो, इस प्रप में जितने भी प्राणिवर्ग हैं, वह सब आपके क्रीडार्थ मृग के समान हैं, हे भगवान् इस संसार में आकर मैंने यहाँ जो कुछ भी कर्म किया है, वह सब आपके प्रसता के लिए ही होवे। हे पशुपते! मेरी जितनी भी क्रियायें हैं, निश्चित ही वे एक तरह से कौतूहलपूर्ण है, अर्थात् केवल अपने मनोरञजनार्थ है, इसलिए मेरी रक्षा का भार भी सर्वथा आपके हीं ऊपर है।
बहुविध्परितोषवाष्पपूरस्पफुटपुलकातिचारुभोगभूमिम्।
चिरपदपफलका्क्षिसेव्यमानां परमसदाशिवभावनां प्रपद्ये।।67।।
;मैंद्ध अनेक प्रकार के सन्तोषों से समुत्प–आनन्दाश्रुओं के प्रवाह से पुलकित, सुन्दर भोग भूमि है जिसमें, और चिर काल से परमपद व परमपफल के इच्छुकों द्वारा जो सेवित है, ऐसी परमसदाशिव भावना को कब प्राप्त करूँ।
अमितमुदमृतं मुहुदुर्हन्तीं विमलभवत्पदगोष्ठमावसन्तीम्।
सदय पशुपते सुपुण्यपाकां मम परिपालय भत्तिफध्ेनुमेकाम्।।68।।
हे पशुपते! हे दयालो! मेरी अनन्त हर्षरूपी अमृत को प्रदान करने वाली, निर्मल आपके चरण कमल रूपी गोष्ठ में निवास करने वाली, जन्मजन्मान्तरों के पुण्यों के परिणामस्वरूप एक भत्तिफरूपी ध्ेनु की आप रक्षा करें, अर्थात् आप इस प्रकार की मुझे बुि( प्रदान करें, जिससे मैं आपकी अनन्यभत्तिफ से कभी भी विचलित न होऊँ।
जडता पशुता कलतिा कुटिलचरत्वं च नास्ति मयि देव।
अस्ति यदि राजमौले भवदाभरणस्य नास्मि क पात्राम्।।69।।
हे देव! मेरे में जडता–मूर्खता पशुता–पशुत्व–अविशेषज्ञता, कुटिलचरता–कपटपूर्ण व्यवहार ये सब ;दुर्गणद्ध जब नहीं है, तो पिफर मुझे आप क्यों नहीं अपनाते हो। हे राजमौले चन्द्राभरण! चन्शेखर! यदि आप पूर्वोत्तफ दोष मेरे में भी किसी प्रकार समझते हैं, तो पिफर भी मै। आपका आभरण अलार या परिकर नहीं बन जाता क्या? क्योंकि पूर्वोत्तफ जितने भी दोष हैं, वे आपके उपकरण या अरार हैं, जैसे जडता नित्य कैलास वास होने से आप में भी सहज शीतलता है, जो एक सुन्दर गुण है या अलार है, इसी प्रकार पशुता भी–क्योंकि आप पशुओं जीवों के पति–शासक–ज्ञानदाता हैं, अत: अनन्त पशु निष्ठ ध्र्म जो पशुता, वह आप में भी है, क्योंकि पशुपति का ही पशु एक अ है, आयिों में समानध्र्म का रहना स्वाभाविक है, और कुटिलचरता कुटिल टेड़ा–मेड़ा चलने वाला सर्प है, वह आपका आभरण है, यह आभरण भी विशेषण या ध्र्म रूप से आपमें है। अत: कुटिलता भी आप में ध्र्म या आभरण के रूप में है। जब ये सब आपके आभरण बनते ही हैं, तो पिफर उत्तफ विशेषणों से विशिष्ट में भी आपके आभरण का पात्रा क्यों न बनूँ।
अरहसि रहसि स्वतन्त्राबु(ा वरिवसितुं सुलभ: प्रसमूखत:।
अगणितपफलदायक: प्रभुमेर् जगदध्किो हृदि राजशेखरोस्ति।।70।।
जनसमुदाय में, अथवा एकान्त में आराध्ना करने में प्रस मूखत आशुतोष सदाशिव सर्वथा सुलभ है, ऐसे अनन्तपफलों को देने वाले संसार के स्वामी प्रभु चन्द्रशेखर, मेरे हृदय में हमेशा विराजमान हैं।
आरूढभत्तिफगुणकुतिभावचाप
युक्तै: शिवस्मरणबाणगणैरमोघै:।
निखजत्य किल्बिषरिपून्विजयी सुध्ीन्:
सानन्दमावहति सुस्थिरााजलक्ष्मीम्।।71।।
भत्तिफरूपी प्रत्य ा ;ध्नुष की डोरीद्ध को चढ़ाकर, आकुिञ त भावरूप ध्नुष से युत्तफ होकर, अमोघ शिवस्मरण रूप वाणों से, पापरूपी शत्राुओं को जीतकर श्रेष्ठ बुि(मान, आनन्दपूर्वक सुस्थिर राजलक्ष्मी का उपभोग करता है।
यानानेन समवेक्ष्य तम:प्रदेशं
भित्त्वा महाबलिभिरीश्वरनाममन्त्रै:।
दिव्याश्रितं भुजगभूषणमुद्वहन्ति
ये पादपद्ममिह ते शिव ते कृतार्था:।।72।।
हे शिव! इस संसार में जो लोग यानरूपी अ न से दृष्टि को निर्मल कर, अन्ध्कार स्थल को देख लेते हैं, पुन: शत्तिफशाली भगवान् के नाम मन्त्राों से उस अज्ञानान्ध्कार को दूर कर, दिव्यों से सेवित भुजगभूषण वाले, आपके चरण कमलों का आश्रय लेते हैं, वस्तुत: वे ही कृतार्थ हैं।
भुदारतामुदवहद्यदपेक्षया श्रीभूदार एव किमत: सुमते लभस्व।
केदारमाकलितमुत्तिफमहौषध्ीनां पादारविन्दभजनं परमेश्वरस्य।।73।।
हे सुमति! यदि आप भूस्वामिता को अच्छा समझते हैं, तो उससे तो केवल सम्पत्ति और भूस्वामिता ही आपको प्राप्त हो सकती है, इससे आगे कुछ भी नहीं। यदि आप परमेश्वर के चरणाविन्दों का यान भजन आदि करें, तो सुशोभित हैं मुत्तिफरूपी महौषध्यिाँ जिसमें, ऐसे सुन्दर ‘केदार’ क्षेत्रा को अथवा उत्तराखण्ड में स्थित ‘केदार’ नामक ‘धम’ को भी प्राप्त कर सकते हैं।
आशापाशक्लेशदुर्वासनादिभेदोद्युत्तफैखदव्यगन्ध्ैरमन्दै:।
आशाशाटीकस्य पादारविन्दं चेत:पेटीं वासितां मे तनोतु।।74।।
दिशायें हीं जिनका आच्छादन हैं, ऐसे भूतभावन भगवान् के चरणारविन्द, मेरी आशा रूपी पाश में वर्तमान क्लेश कर्म आदि दुर्वासनाओं के दूर करने में तत्पर–समर्थ, पादारविन्द की जो दिव्यगन्ध् है, वह मेरे चित्तरूपी पेटी को सुगन्धि्त करें।
कल्याणिनं सरसचित्रात सवेगं
सवेर्तिज्ञमनघं ध्ु्रवलक्षणाढम्।
चेतस्तुरध्रिुह्य चर स्मरारे
नेत: समस्तजगतां वृषभाध्रिूढ।।75।।
हे स्मरारे! हे समस्तजननायक! हे वृषभवाहन! आप कल्याण कारक अर्थात् अच्छे लक्षणों वाले, सुन्दर व चिचित्रा गति–पदक्रम वाले, वेगपूर्वक चलने वाले, सभी के इशारे को समझने वाले, दृढ़ सि(ान्तों नियमों–व्रतों को मानने वाले, मेरे चित्तरूपी घोडे़ं में चढ़कर, समस्त संसार में विचरण करो।
भत्तिफर्महेशपदपुष्करमावसन्तो
कादम्बिनीव कुरुते परितोषवर्षम्।
संपूरितो भवति यस्य मनस्तटाक
स्तज्जन्मसस्यमखिलं सफलं च नान्यत्।।76।।
भगवान् शर के चरण कमलों का आश्रय लेने वाली भत्तिफ, मेध्माला की तरह सन्तोषामृत की वर्षा करती है, जिस वर्षण से, मन रूपी तड़ाग परिपूर्ण हो जाता है। अत: उस सन्तोषामृत रूपी जल से उत्प हुआ सम्पूर्ण धन्य सपफल होता है, तदतिरित्तफ कोई चीज सपफल नहीं है।
बुि(: स्थिरा भवितुमीश्वरपादप
सत्तफा वध्ूविरहिणीव सदा स्मरन्ती।
सावनास्मरणदर्शनकीर्तनादि
संमोहितेव शिवमन्त्राजपेन विन्ते।।77।।
बुि( स्थिर होने के लिए, ईश्वर के चरणकमलों में आसत्तफ होती है, परन्तु विरहिणी वध्ू की तरह वह जब भगवद् विषयक भावना का स्मरण करती है, और भगवद् मूखत का दर्शन करती है, या कीर्तनादि करती है, तो पिफर वह संमोहित हो जाती है। ऐसी स्थिति में पुन: शिवमन्त्रा के मायम से, भगवान् के विषय में कुछ विचार कर सकती है।
सदुपचारविध्षि्वनुबोध्तिां सविनयां सुहृदं समुपाश्रिताम्।
मम समु(र बुदि(मिमां प्रभो वरगुणेन नवोढवध्ूमिव।।78।।
हे प्रभो! सुन्दर शिष्टाचारादि विध्यिों में सुशिक्षित, विनीत, सुन्दर हृदयरूपी मित्रा का आश्रय हुई, इस मेरी बुि( का, सुन्दर पति के मिलने नवोढा वध्ू का जिस प्रकार उ(ार हो जाता है, उसी प्रकार उ(ार कीजिए।
नित्यं योगिमन:सरोजदलसंचारश्रमस्त्वत्क्रम:
शम्भो तेन कथं कठोरयमराड्वक्ष: कवाटक्षति:।
अत्यन्तं मृदुलं त्वद्घ्रियुगलं हा मे मनश्चिन्तय
त्येतल्लोचनगोचरं कुरु विभो हस्तेन संवाहये।।79।।
हे शम्भो! आपका पाद विक्षेप, अर्थात् चलना पिफरना योगियों के मन रूपी कमल के पत्तों में ही होता है, अर्थात् जब आपके चरण हमेशा योगियों के कोमल मन रूपी कमल पर स रण करते हैं, तो उन चरणों में भी संसर्गजन्य कोमलता ही रहेगी, तब वे चरण कठोर यमराज के वक्षरूपी कपाट को कैसे तोड़ सकंेगे, बडे़ दु:ख के साथ मेरा मन, यही सोचता रहता है, अत: आप मेरे मन की ओर निहारिये, मैं आपके इन कोमल चरणों की तरपफ देखता हूँ, इन्हें अपने हाथ से दबाकर कुछ कठोर बना दूँ।
एष्यत्ये जन मनोस्य कठिनं स्मिटानीति म
क्षायैगिरिसीम्नि कोमलपदन्यास: पुराभ्यासित:।
नो चेद्दिव्यगृहान्तरेषु सुमनस्तल्पेषु वेद्यादिषु
प्राय: सत्सु शिलातलेषु नटनं शंभो किमथ तव।।80।।
हे शम्भो! यह भत्तफ जन, पुन: इस संसार मेें जन्म ग्रहण करेगा, इसका मन अत्यन्त कठिन है, अत: मैं ;अपने चरणों को मजबूत बनाने के लियेद्ध निरन्तर इसके मन में भ्रमण करूँगा, यह सब सोचकर ही, मेरी रक्षा की दृष्टि से ही, आपने पिफर अपने कोमल चरणों से गिरिगुहाओं में घूमने का अभ्यास प्रारम्भ कर दिया है क्या? अन्यथा तो आप किसी एक जगह बैठे रहते, प्राय: दिव्य गुहाओं में कुसुमतल्पों में, चबूतरों में सुन्दर शिलाओं में व्यर्थ नाच क्यों करते।
कंचित्कालमुमामहेश भवत: पदारविन्दार्चनै:
कंचि(ानसमाध्भिि नतिभि: कंचित्कथाकर्णनै:।
कंचित्कंचिदवेक्षणै नुतिभि: कंचिद्दशामीदृशीं
य: प्राप्नोति मुदा त्वदखपतमना जीवन्स मुत्तफ: खलु।।81।।
हे उमासहित महेश! आपके चरणकमलों के पूजन से, और कुछ यान समाधि् से, कुछ आपसे संबंध्ति कथा वार्ता से, कुछ कुछ दर्शन व स्तुतियों से, कुछ तक आनन्दमग्न होकर, आपमें ही निरन्तर मन लगा देने से, इस प्रकार की किसी आलौकिक दशा–अनिर्वचनीय अवस्था को, जो प्राप्त करता है, वस्तुत: वही जीवन्मुत्तफ है।
बाणत्वं वृषभत्वमध्र्वपुषा भार्यात्वमार्यापते
घोणित्वं सखिता मृदवहता चेत्यादि रूपं दधै।
त्वत्पादे नयनार्पणं च कृतवांस्त्वद्देहभागो हरि:
पूज्यात्पूज्यत: स एव हि न चेत्को वा तदन्योध्कि:।।82।।
हे मायापते! आपके देह के एक भागस्वरुप हरि, भगवान् विष्णु, कभी आपके बाण का रूप धरण करते हैं, तो कभी वृषभ का, कभी आध्े शरीर में सुन्दरी का रूप धरण कर लेते हैं, और कभी सूकरादि नाना रूप धरण करते हैं, कभी अजुर्न के रूप में सखिता मित्राता आदि का रूप धरण कर, निरन्तर आपके चरण कमलों में ही यान लगाया करते हैं, तब बताइए वे ही सबसे अध्कि पूजनीय नहीं होंगे, तो पिफर उनसे अध्कि पूजनीय दूसरा कौन हो सकता है।
जननमृतियुतानां सेवया देवतानां
न भवति सुखलेश: संशयो नास्ति तत्रा
अजनिममृतरूपं साम्बमीशं भजन्ते
य इह परमसौख्यं ते हि ध्न्या लभन्ते।।83।।
इस संसार में जो लोग जन्म–मरण–ध्र्म वाले, देवताओं की सेवा करते हैं, वे सुखलेश को भी प्राप्त नहीं करते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है, परन्तु जो लोग जन्म–मरण ध्र्म रहित, अमृत रूप उमासहित महेश का भजन करते हैं, वे भाग्यशाली ही परमसौभाग्य को प्राप्त करते हैं।
शिव तव परिचर्यासनिधनाय गौर्या
भव मम गुणध्ुर्या बुि(कन्यां प्रदास्ये।
सकलभुवनबन्धे सच्चिदानन्दसिन्धे
सदय हृदयगेहे सर्वदा संवस त्वम्।।84।।
हे शिव! गौरी के द्वारा आपकी पूजा में सुविध के लिए, मैं अपनी श्रेष्ठ गुणों से युत्तफ, बुि(रूपी कन्या को प्रदान करता हूँ। अर्थात् गौरी आपकी परिचर्या–सेवा पूजा में परायण है, उन्हेें किसी प्रकार की असुविध या कठिनाई न हो, इसके लिए उनकी सहायता के रूप में मैं गुणगणों से युत्तफ अपनी बुि(रूपी कन्या को उत्तफ पूजा के सहायता हेतु, प्रदान करता हूँ। तात्पर्य यह है मेरी बुि( भी, आपकी सपर्या पूजा में लगी रहे। इसलिए हे भव! हे सम्पूर्ण भुवन के एकमात्रा बन्ध्ु! सत् चित् व आनन्द के सागर! हे दयालो! आप हमेशा मेरे हृदयरूपी घर में ही निवास करें।
जलध्मिथनदक्षो नैव पातालभेदी
न च वनमृगायायां नैव लब्ध्: प्रवीण:।
अशनकुसुमभूषावस्त्रमुख्यां सपया
कथय कथमहं ते कल्पयानीन्दुमौले।।85।।
हे चन्द्रशेखर! आप न तो जलधि् समुद्र के मन्थन में कुशल हैं, और न पातालभेदी ही हैं, भगवान् रामचन्द्र की तरह वनमृगया में भी चतुर नहीं है, अथवा प्रकृष्ट वीणा वंशी आदि वादन में ही आप कुशल नहीं हैं, पिफर कहिए ध्ूप–दीप नैवेद्य, वस्त्रालारादि ही हैं प्रमुख सामग्री जिसमें, इस प्रकार की आपकी पूजा को मैं कैसे करूँ।
पूजाव्यसमृ(यो विरचिता: पूजां कथं कुर्महे
पक्षित्वं न च वा किटित्वमपि न प्राप्तं मया दुर्लभम्।
जाने मस्तकम्घ्रिपल्लवमुमाजाने न तेहं विभो
न ज्ञातं हि पितामहेन हरिणा तत्त्वेन तूपिणा।।86।।
हे उमापति! हमने अच्छी तरह सारी पूजा सामग्री तो उपस्थित कर ली, परन्तु किस विधि्, से या कैसे पूजा की जाय, यह मालूम नहीं है, पक्षिरुप में अथवा कीट रुप में दुर्लभ आपका सेवा अवसर भी हमें प्राप्त नहीं हो सका। हे विभो! केवल आपके पदपल्लवों में अपना मस्तक नवाता हूँ। आपके स्वरूप में लीन पितामह और भगवान् विष्णु भी जब तत्व रूप से आपको नहीं जान सकते, तो पिफर मन्दमति मैं कैसे आपको जानूँगा।
अशनं गरलं पफणी कलापो वसन चर्म च वाहनं महोक्ष:।
मम दास्यसि क किमस्ति शंभो तव पादाम्बुजभत्तिफमेव देहि।।87।।
हे शम्भो! आपका अशन–खान–पान तो केवल गरल–विष है, अर्थात् आप विषपान करते हो, पफणाधरी भुजा आपके भूषण हैं, आपका परिधन गजचर्म हैं, बूढ़ेबैल की सवारी है। इस प्रकार स्वयं अकि न आप मुझे क्या देंगे? आपके पास तो कुछ भी, किसी को देने योग्य वस्तु नहीं है, अत: यह सब न देखकर, आप अपने चरणकमलों की भत्तिफ मुझे प्रदान करें।
यदा कृताम्भोनिध्सिेतुबन्ध्न: करस्थलाध्:कृतपर्वताध्पि:।
भवानि ते लिातपसंभवस्तदा शिवार्चास्तवभावनक्षम:।।88।।
हे प्रभो! रामावतार में, वे भगवान् विष्णु लंका को जाने के लिए समुद्र में पुल बाँध्ने लगे, तो बाँध् के लिए उन्होंने कपि आदि की सहायता से पर्वत तोड़ तोड़ कर पत्थरों का ढेर लगा दिया, और समुद्र को पार किये, इस समुद्र के सेतुबन्ध्न की सपफलता को, उन्होने केवल आपका प्रसाद समझा, तब उन्होंने ‘सेतुबन्ध् रामेश्वर में’ आपके लि की स्थापना कर, वहाँ विध्वित् पूजा की। इस प्रकार भगवान् की पूजा का निमित्त तो सेतुबन्ध्न बन पड़ा, पर मैं किस निमित्त को लेकर आपकी भावना या पूजा में तत्पर रहूँ।
नतिभिनुर्तिभिस्त्वमीश पूजाविध्भििर्यानसमाध्भििन तुष्ट:।
ध्नुषा मुसलेन चाशमभिर्वा वद ते प्रीतिकरं तथा करोमि।।89।।
हे भगवान्! यदि आप नमस्कारों, स्तुतियो, पूजाविध्यिों और यान समाधि् आदि से संतुष्ट नहीं होते हैं, तो क्या पिफर ध्नुष, हल, मुसल, पत्थर आदि से प्रस होते हैं? कहिए? आप जिस प्रकार के कर्म या आचरण से प्रस होंगे, मैं भी वैसा ही कर्म या आचरण करूँगा।
वचसा चरितं वदामि शंभोरहमुद्योगविधसु तेप्रसत्तफ:।
मनसाकृतिमीश्वरस्य सेवे शिरसा चैव सदाशिवं नमामि।।90।।
हे शम्भो! मैं आपकी विध्वित् पूजा–अर्चाना–यान–समाधि्आदि विधओं को सम्यक् सम्पादन करने में असमर्थ होता हुआ, केवल वचन से आपके चरितों का बखान करता हूँ, मन से आपकी आकृति;झांकीद्ध का यान करता हूँ, और शिर से आपको प्रणाम करता हूँ।
आद्याविद्या हृद्गता निर्गतासोद्विद्या हृद्गता त्वत्प्रसादात्।
सेवे नित्यं श्रीकरं त्वत्पदाब्जं भावे मुत्तफेर्भाजनं राजमौले।।91।।
हे चन्द्रशेखर! आपकी कृपा से अनादि अविद्या ;मूलाविद्याद्ध निकल गई, पुन: आपके ही प्रसाद से, हृदय में शु( विद्या का उदय हुआ। हे शम्भो! मैं नित्य कल्याणकारक व शोभा सम्प, आपके ही चरणकमलों का सेवन करता हूँ, और मुत्तिफ के भाजनभूत आपकी भावना करता हूँ।
दूरीकृतानि दुरितानि दुरक्षराणि
दौर्भाग्यदु:खदुरहंकृतिदुर्वचांसि।
सारं त्वदीयचरितं नितरां पिबन्तं
गौरीश मामिह समु(र सत्कटाक्षै:।।92।।
हे शम्भो! आपने मेरे दुर्भाग्य स्वरूप या पापरूप में स्थित जो भाग्याक्षर थे, वे दूर किये, साथ ही साथ मेरे दुर्भाग्य दु:ख, तथा मिथ्याहंकार, और कटुभाषणादि दुर्वचनों को भी, दूर किया है। हे गौरीनाथ! अब इस समय यहाँ अत्यन्त सारभूत आपके चरितामृत का पान करने वाले मेरा, अपने करुणापूर्ण कटाक्षों से उ(ार कीजिए।
सोमकलाध्रमौलौ कोमलघनकंधरे महामहसि।
स्वामिनि गिरिजानाथे मामकहृदयं निरन्तरं रमताम्।।93।।
हे शम्भो! मेरा हृदय, मस्तक में चन्द्र कला धरण किये हुये, महा तेजस्वी, कोमल एवं पुष्ट कन्ध्रा वाले, स्वामी पार्वती नाथ में निरन्तर लगा रहे।
सा रसना ते नयने तावेव करौ स एव कृतकृत्य:।
या ये यौ यो भग वदतोक्षेते सदार्चत: स्मरति।।94।।
वस्तुत: किसी मनुष्य की रसना–जिा जीभ वही है, जो भगवान् शर के विषय में बोलती है, अर्थात् भगवान् शर का गुणगान करने वाली रसना ही वस्तुत: रसना है, अन्य तो पिफर सामान्य जीभ मात्रा है। किसी भाग्यशाली पुरुष के नेत्रा भी वस्तुत: वही नेत्रा है, अर्थात् वे नेत्रा अत्यन्त भाग्यशाली हैं, जो हमेशा भगवान् शर के दर्शन किया करते हैं। हाथों की भी सपफलता इसी मेें है, जबकि वे भगवान् शर की पूजा में लगे रहें, अन्यथा तो खाली हाथमात्रा हैं। वस्तुत: वही पुरुष कृतकृत्य पुण्यात्मा है, जो हमेशा भगवान् शर का स्मरण किया करता है।
अतिमृदुलो मम चरणावतिकठिनं ते मनो भवानीश।
इति विचिकित्सां संत्यज शिव कथमासीद्गिरौ तथा वेश:।।95।।
हे भवानिपते! मेरे चरण अत्यन्त कोमल हैं, और भत्तफ का मन बड़ा कठोर है, अत: कैसे मैं भत्तफ के मन में विचरण करूँग? इस प्रकार के सन्देह को छोड़ो, क्योंकि आप तो पर्वतराज हिमालय व कैलास के कठिन वन प्रस्तर भागों में विचरण करने वाले हो, जब उस प्रकार के कठिन से कठिन वन प्रस्तर भागों में विचरण करने वाले हो, जब उस प्रकार के कठिन से कठिन खण्डों में, आप विचरण कर लेते हैं, तो पिफर भत्तफ हृदय तो पत्थर से कठिन नहीं है, अत: नि:सन्देह आप बड़ी तबीयत से, भत्तफ के हृदय में विचरण किया करें।
ध्ैर्याशेन निभृतं रभसादाकृष्य भत्तिफश्रृलया।
पुरहर चरणालाने हृदयमदेभं बधन चिद्यन्त्रौ:।।96।।
हे पुरहर शम्भो! मेरे हृदय को, अपने चरणरुपी खम्भे में, ध्ीरे–ध्ीरे ध्ैर्यरूपी अंकुश से वश में करके, भत्तिफरूपी श्रृंखला से, जोर से खींचकर, चैतन्य रूप यन्त्राों द्वारा, अभेदभावना या अद्वैत भावना से बाँध् दो।
प्रचरत्यभित: प्रगल्भवृत्त्या मदवानेष मन:करी गरीयान्।
परिगृह्य नयेन भत्तिफरज्ज्वा परम स्थाणु पदं दृढं नयामुम्।।97।।
हे शम्भो! मदमस्त विशाल यह मेरा मन रूपी हाथी, स्वच्छन्द वृत्ति से इध्र–उध्र चारों ओर ;विषय प्रदेश मेंद्ध घुमता है, इस मनरूपी हाथी को नीतिपूर्वक भत्तिफरूपी रस्सी से बाँध्कर, नित्य–स्थिर–शाश्वत–परम शिव के, परमधम की ओर ले चलो।
सर्वालंकारयुत्तफां सकलपदयुतां साधुवृत्तां सुवणा
सि: संस्तूयमानां सरसगुणयुतां लक्षितां लक्षणाढाम्
उद्यूषाविशषामुपगतविनयां द्योतमनाथरेखां
कल्याणीं देव गौरीप्रिय मम कविताकन्यकां त्वं गृहाण।।98।।
हे देव! हे गौरीप्रिय! आप मेरी सभी उपमा आदि अलारों से युत्तफ, अथवा सभी प्रकार के आभरणों गहनों से सुशोभित, सभी प्रकार के दीर्घ या असमस्त समस्त पदों से युत्तफ, अथवा सभी प्रकार के स्थान में रहने योग्य, सुन्दर छन्दों से बनाई गई, अथवा सुन्दर आचरण से युत्तफ, सुन्दर स्वर व्य नादि वणो से युत्तफ या स्वच्छ गौरादि वर्ण से युत्तफ, काव्यशास्त्राोंं के द्वारा प्रशंसनीय, अथवा सन्तों द्वारा श्लाघनीय, रस श्रृंगारादि, गुण माध्ुर्यादि से युत्तफ, अथवा सुन्दर चेष्टा हावभावा और दयादाक्षिण्यादि से युत्तफ, उत्तफ गुणगणों से तथा सुन्दर लक्षणों से युत्तफ, प्रकट हो रही है वेषभूषा की विशेषता जिसमें, विनय से पूर्ण प्रस्पफुरित है, या सरलतया अवगत हो रही है अर्थ रूपी रेखा जिस कविता में अथवा सापफ प्रकट है ललाटादि स्थलों में सौभाग्यादि रेखायें जिसकी, ऐसी मंगलप्रद शुभ कवितरूपी कन्या को स्वीकार करें।
इदं ते युत्तफं वा परमशिव कारुण्यजलध्े
गतौ तिर्यग्रूपं तव पदशिरोदर्शनध्यिा।
हरिब्राणौ तौ दिवि भुवि चरन्तौ श्रमयुतौ
कथं शंभो स्वामिन्कथय मम वेद्योसि पुरत:।।99।।
हे परमशिव! हे करुणा के सागर! आपके चरण तथा शिर की खोज के लिए, या दर्शन के लिए पक्षिस्वरुप को धरण किए हुए, विष्णु व ब्रा आकाश, पाताल व पृथ्वी में विचरण करते करते थक गये बेचारे, पिफर भी आप उनके दृष्टिपथ में नहीं आये, इस तरह से उन्हें परेशान करना;आपकोद्ध उचित है क्या? हे शम्भो! हे स्वामिन्! जब संसार के पालक व निर्माताओं के ही आप दृष्टिपथ में नहीं आते हैं, तो पिफर एक सामान्य व्यत्तिफ मेरे सामने कैसे आप आयेंगे, अर्थात् तब मैं कैसे आपका साक्षात्कार कर सकूँगा।।
स्तोत्रोणलमहं प्रवच्मि न मृषा देवा विरिादय:
स्तुत्यानां गणनाप्रससमये त्वामग्रगण्यं विदु:।
माहात्म्याग्रविचारणप्रकरणे धनातुषस्तोमव
(ूतास्त्वां विदुरुत्तमोत्तमफलं शंभो भवत्सेवका:।।100।।
हे शम्भो! अब आगे और स्तुति करने से क्या पफायदा, मैं सच सच कहता हूँ, तो उनमें आपको ही सर्वाग्रणी मानते है। और जब कभी आपके माहात्म्य के विचार का समय आता है, तो पिफर आपके भत्तफ, अन्य देवताओं को उसी प्रकार छोड़ देते है, जिस प्रकार किसान धन के तुष व डण्ठल को छोड़कर,उत्तम धन्य पफल को ही ग्रहण करते हैं। अत: आप ही देवताओं में सर्वोत्तम पफल स्वरुप है।
।।इति शिवानन्दलही।।